कबीर साहेब के दोहे हिंदी अर्थ सहित

कबीर साहेब के दोहे हिंदी अर्थ सहित

 
कबीर के दोहे साखी हिन्दी अर्थ सहित Kabir Dohe Sakhi Hindi Meaning

जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ॥टेक॥
तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ।
मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥
चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ।
तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥
हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा।
कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥

एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।
प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे l
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले ll
काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय।
त चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहरो भयो खुदाय ॥
एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई।
कहै कबीर सुनौ रे संतो भटकि मरै जनि कोई॥ 
 
"एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा। एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।"

इस पद में कबीर जी कहते हैं कि सभी मनुष्य एक ही स्रोत से उत्पन्न हुए हैं। शरीर की संरचना में कोई भेद नहीं है; सभी में एक ही आत्मा की ज्योति है। इसलिए, जाति, धर्म या सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव करना निरर्थक है।

"वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक। छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।"

यहां कबीर जी धार्मिक आडंबरों पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति केवल बाहरी आचार-व्यवहार से वैष्णव बन जाता है, तो वह वास्तविक भक्ति नहीं है। सिर्फ तिलक और चादर ओढ़ने से कोई व्यक्ति सच्चा भक्त नहीं बन जाता।

"प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे। लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले।।"

इस पद में कबीर जी प्रेम और भक्ति की वास्तविकता को बताते हैं। जो व्यक्ति सच्चे प्रेम से भरा होता है, वह अपने प्रभु को समर्पित होकर शीश (सिर) अर्पित करता है। वहीं, लोभी व्यक्ति केवल नाम का जाप करता है, लेकिन सच्चे समर्पण से दूर रहता है।

"काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय। त चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहरो भयो खुदाय ॥"

यहां कबीर जी धार्मिक पाखंड पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति कंकड़-पत्थर जोड़कर मस्जिद बनाता है और फिर उसमें बैठकर अल्लाह की बांग (आवाज़) देता है, तो क्या वह सच्चा भक्त है? सच्ची भक्ति तो हृदय में होनी चाहिए, न कि बाहरी आडंबरों में।

"एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई। कहै कबीर सुनौ रे संतो भटकि मरै जनि कोई॥"

इस पद में कबीर जी कहते हैं कि सभी में एक ही दिव्य ज्योति व्याप्त है; कोई भिन्नता नहीं है। इसलिए, संतों को चाहिए कि वे भटककर न मरें, बल्कि इस सत्य को समझें और दूसरों को भी समझाएं।

कबीर जी के ये पद समाज में व्याप्त भेदभाव, धार्मिक पाखंड और आडंबरों पर गहरी टिप्पणी करते हैं, और सच्ची भक्ति और मानवता की ओर मार्गदर्शन करते हैं।
 
जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ: कबीर जी कहते हैं कि योगी अपने शरीर को साधना का यंत्र मानते हुए, उसके माध्यम से ध्यान और साधना करते हैं, जिससे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।

तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ: वे अपने शरीर को तानसे (संगीत वाद्य) की तरह तानते हैं, धर्म की डोरी से बांधते हैं और सत्य की सवारी (सवारी) लगाते हैं।

मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ: मन को स्थिर आसन में बैठाकर, रसन (जीभ) के माध्यम से रस (आध्यात्मिक आनंद) का अनुभव करते हैं।

चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ: चित्त को बटवे (संतुलन) की तरह साधते हुए, शरीर की भस्म (मृत्यु) को चढ़ाते हैं।

तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ: पाँच इंद्रियों (पाषंड) को तजकर, निग्रह (नियंत्रण) करते हुए, परम पद (परमात्मा) की खोज करते हैं।

हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा: हृदय में ज्ञान और गुणों की सींग (सींग) बांधते हुए, निरंजन (निर्मल) और सच्चे आत्मा की खोज करते हैं।

कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा: कबीर जी कहते हैं कि निरंजन (निर्मल) की अवस्था को प्राप्त करने के लिए, योग की विधि (जुगति) के बिना, शरीर (प्यंड) नष्ट हो जाता है।
 
वर्तमान समय में आर्थिक कद ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का पैमाना बनकर रह गया है। व्यक्तिगत गुण गौण हो चुके।  कबीर ने इस मानवीय दोष को उजागर करने में कोई कसर नहीं रखी। वर्तमान में देखें तो नेता का बेटा नेता बन रहा है। चूँकि उसे अन्य लोगों की तरह से संघर्ष नहीं करना पड़ता है, वो आम आदमी से आगे रहता है। अमीर और अधिक अमीर बनता जा रहा है और गरीब और अधिक गरीब।  आर्थिक असमानता के कारन संघर्ष और तनाव का माहौल है। कबीर ने कर्मप्रधान समाज को सराहा और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को सिरे से नकार दिया। छः सो साल बाद आज भी कबीर के विचारों की प्रासंगिकता ज्यों की त्यों है। कबीर का तो मानो पूरा जीवन ही समाज की कुरीतियों को मिटाने के लिए समर्पित था। आज के वैज्ञानिक युग में भी बात जहाँ "धर्म" की आती है, तर्किता शून्य हो जाती है। ये विषय मनन योग्य है।

ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय ।
सुबरन कलश सुरा भरा साधू निन्दत सोय

कबीर ने सदैव स्वंय के विश्लेषण पर जोर दिया। स्वंय की कमियों को पहचानने के बाद हम शांत हो जाते है। पराये दोष और उपलब्धियों और दोष को देखकर हम कुढ़ते हैं जो मानसिक रुग्णता का सूचक यही। यही कारन हैं की आज कल "पीस ऑफ़ माइंड" जैसे कार्यकर्म चलाये जाते हैं।
Next Post Previous Post