स्याम मिलण रो घणो उभावो

स्याम मिलण रो घणो उभावो

स्याम मिलण रो घणो उभावो, नित उठ जोऊ बाटड़ियाँ।।टेक।।
दरस बिना मोहि कुछ न सुहावै, जक न पड़त है आँखडियाँ।
तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी बिरह की पाशड़ियाँ।
अब तो बेगि दय करि साहिब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ।
नैण दुखी दरसण कूँ तरसै, नाभिन बैठे साँसड़ियाँ।
राति दिवस यह आरति मेरे, कब हरि राखै पासड़ियाँ।
लागि लगन छूटण की नाहीं, अब क्यूँ कीजै आँटड़ियाँ।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, पूरी मन की आसड़ियाँ।

(घणो=अधिक, उभावो=उत्साह,उत्कण्ठा, बाटड़ियाँ=राह, मार्ग, जक=चैन, तलफत-तलफत=तड़पते-तड़पते, पाशड़ियाँ=पाश,फाँसी, नाभिन=नव्ज, आरति=दुःख,विनती, पासड़ियाँ=पास, आंटड़ियां=आंट,उपेक्षा भाव)

मीराबाई का भजन "स्याम मिलण रो घणो उभावो" उनके श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और मिलन की उत्कंठा को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण से मिलन की तीव्र इच्छा और उनके बिना जीवन की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं। वह कहती हैं कि उनके हृदय में श्रीकृष्ण से मिलन की तीव्र इच्छा है, और उनके दर्शन के बिना उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह विरह की वेदना से तड़प रही हैं, और श्रीकृष्ण से शीघ्र मिलन की प्रार्थना करती हैं। उनकी आँखें श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए तरस रही हैं, और उनका हृदय नित्य उनके पास रहने की इच्छा से व्याकुल है। मीराबाई कहती हैं कि अब उन्हें श्रीकृष्ण से मिलन की तीव्र इच्छा है, और वह अपने हृदय की पूरी आस को व्यक्त करती हैं। इस भजन के माध्यम से मीराबाई अपने श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति को व्यक्त करती हैं, जिसमें उनके बिना जीवन की कठिनाई और उनके आगमन की प्रतीक्षा को दर्शाया गया है।


इस सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रति गहन प्रेम और उनकी अनुपस्थिति में आत्मा की व्याकुलता का भाव प्रदर्शित होता है। जब भक्त अपने आराध्य के दर्शन को तरसता है, तब संसार का प्रत्येक सुख महत्वहीन प्रतीत होता है। यह अनुभूति प्रेम के उस शिखर को दर्शाती है, जहां आत्मा केवल ईश्वर के मिलन की लालसा में ही जीती है।

विरह की यह पीड़ा भक्त को एक गहन आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाती है, जहां उसका मन सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर केवल श्रीकृष्णजी के प्रेम में डूब जाता है। यह भाव प्रकट करता है कि जब प्रभु के बिना जीवन असहाय प्रतीत होता है, तब आत्मा केवल उनकी शरण में जाकर शांति प्राप्त कर सकती है।

प्रभु श्रीकृष्णजी के दर्शन की प्रतीक्षा भक्त के हृदय में एक अद्भुत समर्पण और श्रद्धा को जागृत करती है। यह संकेत करता है कि प्रेम में केवल मिलन ही नहीं, बल्कि विरह भी एक दिव्य अनुभव है, जो आत्मा को पूर्णता की ओर ले जाता है। यही भाव हमें सिखाता है कि ईश्वर की आराधना में जब प्रेम और समर्पण का संपूर्ण मेल होता है, तब आत्मा को सच्चे आनंद और शांति का अनुभव होता है। यही भक्ति का शाश्वत स्वरूप है—जहां मन ईश्वर की कृपा में लीन होकर उनके प्रेम का रस पीता है।
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