स्याम म्हाँसूं ऐडो डोले हो भजन
स्याम म्हाँसूं ऐडो डोले हो भजन
स्याम म्हाँसूं ऐडो डोले हो, औरन सूं खेलै धमाल।म्हाँसूं मुखहिं न बोलै हो, म्याम म्हाँसूं।।टेक।।
म्हारी गलियाँ नाँ फिरे, बाँके आँगणे डोले हो।
म्हाँरी अँगुली ना छुवे, वाकी बहियाँ मोरे, हो।
म्हाँरा अंचरा ना छुवे, वाको घुँघट खोले, हो।
मीराँ के प्रभु साँवरो, रंग रसिया डोले, हो।।
(म्हाँसू=हमसे, ऐंडो=इतराकर बचता हुआ, वाके=उनके,अन्य स्त्रियों के, बहियाँ=बाँह, रंग रसिया डोले=विलासी बना फिरता है)
इस सुंदर भजन में प्रेम, विरह और भक्ति की गहरी अनुभूति प्रकट होती है। जब आत्मा अपने आराध्य श्रीकृष्णजी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाती है, तब वह उनके प्रेम में डूबकर उनकी निकटता की लालसा करती है। इस भावना में एक गहरी वेदना है, जहां भक्त अपने प्रियतम से प्रश्न करता है—जब सबको स्नेह दे रहे हैं, तो मुझसे दूरी क्यों?
यह भाव प्रेम की परीक्षा को दर्शाता है, जहां विरह की तीव्रता भक्त को व्याकुल कर देती है। यह संकेत करता है कि जब ईश्वर की कृपा और प्रेम का अनुभव होता है, तब मन केवल उनकी निकटता में तल्लीन रहने की आकांक्षा करता है। भक्त के मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि श्रीकृष्णजी के प्रेम के बिना जीवन अधूरा प्रतीत होता है।
श्रीकृष्णजी की लीला और उनकी मोहकता को आत्मसात करते हुए, यह भक्ति केवल बाह्य रूप से नहीं, बल्कि अंतरतम भावों में गहरे स्तर पर प्रवाहित होती है। जब भक्त अपनी चेतना को ईश्वर के प्रेम में डुबो देता है, तब संसार की अन्य चिंताएँ विलीन हो जाती हैं। यही सच्चा समर्पण है, जहां आत्मा केवल प्रभु के प्रेम में लीन रहती है।
इस भजन में व्यक्त भाव हमें यह सिखाता है कि प्रेम में मिठास के साथ-साथ उसकी परीक्षा भी होती है। जब भक्त इन भावनाओं को स्वीकार करता है, तब उसकी भक्ति अधिक दृढ़ और अडिग हो जाती है। यही वह अवस्था है, जहां मन और आत्मा ईश्वर की कृपा को अनुभव कर, शाश्वत प्रेम की अनुभूति में रम जाते हैं। यह भजन प्रेम और भक्ति की गहनता को प्रदर्शित करता है, जहां आत्मा केवल श्रीकृष्णजी के प्रेमरस में सराबोर होकर उनका सतत स्मरण करती है।
यह भाव प्रेम की परीक्षा को दर्शाता है, जहां विरह की तीव्रता भक्त को व्याकुल कर देती है। यह संकेत करता है कि जब ईश्वर की कृपा और प्रेम का अनुभव होता है, तब मन केवल उनकी निकटता में तल्लीन रहने की आकांक्षा करता है। भक्त के मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि श्रीकृष्णजी के प्रेम के बिना जीवन अधूरा प्रतीत होता है।
श्रीकृष्णजी की लीला और उनकी मोहकता को आत्मसात करते हुए, यह भक्ति केवल बाह्य रूप से नहीं, बल्कि अंतरतम भावों में गहरे स्तर पर प्रवाहित होती है। जब भक्त अपनी चेतना को ईश्वर के प्रेम में डुबो देता है, तब संसार की अन्य चिंताएँ विलीन हो जाती हैं। यही सच्चा समर्पण है, जहां आत्मा केवल प्रभु के प्रेम में लीन रहती है।
इस भजन में व्यक्त भाव हमें यह सिखाता है कि प्रेम में मिठास के साथ-साथ उसकी परीक्षा भी होती है। जब भक्त इन भावनाओं को स्वीकार करता है, तब उसकी भक्ति अधिक दृढ़ और अडिग हो जाती है। यही वह अवस्था है, जहां मन और आत्मा ईश्वर की कृपा को अनुभव कर, शाश्वत प्रेम की अनुभूति में रम जाते हैं। यह भजन प्रेम और भक्ति की गहनता को प्रदर्शित करता है, जहां आत्मा केवल श्रीकृष्णजी के प्रेमरस में सराबोर होकर उनका सतत स्मरण करती है।