को विरहिणी को दुःख जाणै हो मीरा बाई पदावली

को विरहिणी को दुःख जाणै हो मीरा बाई पदावली

को विरहिणी को दुःख जाणै हो
को विरहिणी को दुःख जाणै हो ।।टेक।।
जा घट बिरहा सोई लख है, कै कोई हरि जन मानै हो।
रोगी अन्तर वैद बसत है, वैद ही ओखद जाणै हो।
विरह कद उरि अन्दर माँहि, हरि बिन सुख कानै हो।
दुग्धा आरत फिरै दुखारि, सुरत बसी सुत मानै हो।
चात्ग स्वाँति बूंद मन माँहि, पिव-पिव उकातणै हो।
सब जग कूडो कंटक दुनिया, दरध न कोई पिछाणै हो।
मीराँ के पति आप रमैया, दूजा नहिं कोई छाणै हो।।

(घट=ह्दय, हरिजन=हरि-भक्त, वैद=वैद्य, औखद=औषधि, करद=क्टार, उर अन्तर आँहि=ह्दय में,दुग्ध=दग्धा पीड़िता, आरत=आरत,दुःख, चातग=चातक, उकलाणै=व्याकुल होना, दरध=दर्द,पीड़ा,छाण=रक्षा करना, उर=हृदय, दुगधा=दूध देने वाली,ब्याई हुई, सुरत=स्मृति, सुत मांनै=पुत्र में बछड़े,चात्रक=चातक, उकलांणै हो=व्याकुल होता है, दुःखझेलता, कंटक=काँटा,दुःख देने वाली)
 
विरह की वेदना केवल बाहरी पीड़ा नहीं होती, यह आत्मा की गहन पुकार है, जो अपने प्रियतम से मिलने के लिए व्याकुल हो जाती है। यह अनुभव वही समझ सकता है, जिसके हृदय में यह प्रेम जागृत हुआ हो—जिसने ईश्वर के सान्निध्य का रस चखा हो और अब उनके बिना किसी भी सांसारिक सुख को सार्थक न पाया हो।

जब रोगी के अंतर्मन में वैद्य ही निवास करता है, तब केवल वह ही उसके रोग की वास्तविकता को समझ सकता है। उसी प्रकार, जब भक्त की आत्मा ईश्वर के विरह में जलती है, तो इस दुख को केवल सच्चे हरि-भक्त ही समझ सकते हैं। यह विरह न केवल व्याकुलता उत्पन्न करता है, बल्कि यह प्रेम की पराकाष्ठा भी होती है—जहाँ ईश्वर के बिना कोई भी सुख टिक नहीं सकता।

विरहिणी की वेदना केवल शब्दों में नहीं व्यक्त हो सकती, यह तो जीवन की प्रत्येक क्रिया में परिलक्षित होती है। वह चातक पक्षी की भांति स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए तरसती है, जैसे कोई माँ अपने बिछड़े पुत्र की स्मृति में व्याकुल होती है। यह संसार उसकी पीड़ा को नहीं समझ सकता, क्योंकि बाहरी दृष्टि से यह प्रेम एक साधारण भावना प्रतीत होता है। लेकिन जो इसे अनुभव करता है, उसके लिए यह जीवन का सबसे बड़ा सत्य बन जाता है।

मीराँ की भक्ति इसी अनुराग की पराकाष्ठा को प्रकट करती है। जब प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस अनुभूति को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति।
 
विरह की पीड़ा वही समझे, जिसके हृदय में वह आग जली हो। हरि का भक्त ही इस दर्द को पहचानता है, जैसे रोगी का वैद्य ही उसकी औषधि जानता है। हरि बिन हृदय में कटार-सी चुभन, सुख का नाम नहीं। जैसे गाय अपने बछड़े को याद कर तड़पती है, वैसे ही मन प्रभु की स्मृति में बेकल होता है। चातक स्वाति की बूंद को तरसता, प्यास में व्याकुल, वैसे ही मन हरि के लिए तड़पता है। यह दुनिया कांटों-सी, कोई दर्द नहीं समझता। मीराबाई का मन राम में रमा, वही एकमात्र सहारा, जो हर पीड़ा को हर लेता है।

अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥
गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
Next Post Previous Post