को विरहिणी को दुःख जाणै हो मीरा बाई पदावली
को विरहिणी को दुःख जाणै हो
को विरहिणी को दुःख जाणै हो ।।टेक।।
जा घट बिरहा सोई लख है, कै कोई हरि जन मानै हो।
रोगी अन्तर वैद बसत है, वैद ही ओखद जाणै हो।
विरह कद उरि अन्दर माँहि, हरि बिन सुख कानै हो।
दुग्धा आरत फिरै दुखारि, सुरत बसी सुत मानै हो।
चात्ग स्वाँति बूंद मन माँहि, पिव-पिव उकातणै हो।
सब जग कूडो कंटक दुनिया, दरध न कोई पिछाणै हो।
मीराँ के पति आप रमैया, दूजा नहिं कोई छाणै हो।।
(घट=ह्दय,
हरिजन=हरि-भक्त, वैद=वैद्य, औखद=औषधि, करद=क्टार, उर अन्तर आँहि=ह्दय
में,दुग्ध=दग्धा पीड़िता, आरत=आरत,दुःख, चातग=चातक, उकलाणै=व्याकुल होना,
दरध=दर्द,पीड़ा,छाण=रक्षा करना, उर=हृदय, दुगधा=दूध देने वाली,ब्याई हुई,
सुरत=स्मृति, सुत मांनै=पुत्र में बछड़े,चात्रक=चातक, उकलांणै हो=व्याकुल
होता है, दुःखझेलता, कंटक=काँटा,दुःख देने वाली)
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अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।
अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥
गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥