कोई स्याम मनोहर ल्योरी मीरा बाई पदावली

कोई स्याम मनोहर ल्योरी मीरा बाई पदावली

कोई स्याम मनोहर ल्योरी
कोई स्याम मनोहर ल्योरी, सिर धरे मटकिया डोले।।टेक।।
दधि को नाँव बिसर गई ग्वालन, हरिल्यो हरिल्यो बोलै।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, चेरी भई बिन मोलै।
कृष्ण रूप छकी है ग्वालिन, औरहि औरै बोलै।।
(नाँव=नाम, बिसर गई=भूल गई। हरिल्यौ=कृष्णले लो, चेरी=दासी, मोलै=मोल,मूल्य, छकी=पूर्ण)

श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ केवल दृष्टिगोचर होने वाले दृश्य नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति की गहनतम अनुभूतियाँ हैं। जब ग्वालिनें मटकी सिर पर लिए चलती हैं, जब उनका मन श्रीकृष्ण के स्वरूप में पूर्णतः रम जाता है, तब यह केवल एक साधारण व्यापार नहीं रह जाता—बल्कि यह भक्ति की वह मधुर धारा बन जाती है, जिसमें सांसारिक कार्य भी ईश्वर की स्मृति से ओत-प्रोत हो जाते हैं।

मुरली की ध्वनि, कृष्ण का रूप, और उनकी मोहक चितवन भक्तों को मंत्रमुग्ध कर देती है। यहाँ दूध और दही का व्यापार भी कृष्णमय हो जाता है—नाम भले ही दही का लिया गया हो, पर स्मरण केवल श्रीकृष्ण का होता है। जब ईश्वर की उपस्थिति इतनी गहन हो जाती है कि सांसारिक कार्य भी उनकी छवि में विलीन हो जाते हैं, तब यह भक्ति की सर्वोच्च अवस्था होती है।

मीराँ की भक्ति इसी अनुराग की पराकाष्ठा को दर्शाती है। जब भक्ति संपूर्णता को प्राप्त कर लेती है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस अनुभूति को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति।

अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥
गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

अब तो निभायाँ सरेगी, बांह गहेकी लाज।
समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥
भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज।
निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥
जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज।
मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥

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