अयोध्या काण्ड-23 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

अयोध्या काण्ड-23 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें।।
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई।।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ।।
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा।।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।।
मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।
दो0-भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।258।।
–*–*–
गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी।।
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।
दो0-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।
–*–*–
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।।
लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।
दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।260।।
–*–*–
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।
दो0-साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।261।।
–*–*–
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ।।
बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।
दो0-तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।262।।
–*–*–
सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी।।
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी।।
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी।।
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।
दो0-मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।263।।
–*–*–
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।
दो0-मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।264।।
–*–*–
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।।
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा।।
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।।
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा।।
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि।।
दो0-सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।265।।
–*–*–
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई।।
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई।।
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ।।
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं।।
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू।।
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना।।
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।।
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।
दो0-कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ।।266।।
–*–*–
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।।
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।।
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई।।
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।।
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई।।
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं।।
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।
दो0-जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच।।267।।
–*–*–
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू।।
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची।।
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई।।
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका।।
यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु।।
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी।।
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।
दो0-सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ।।268।।
–*–*–
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई।।
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु।।
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई।।
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू।।
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा।।
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।
दो0-प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।269।।
–*–*–
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी।।
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची।।
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए।।
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे।।
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता।।
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा।।
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं।।
दो0-नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ।।270।।
–*–*–
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा।।
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू।।
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि।।
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू।।
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।।
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी।।
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।
दो0-गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति।।271।।
–*–*–
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।।
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति।।
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।।
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे।।
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला।।
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा।।
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे।।
दो0-सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु।।272।।
–*–*–
गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई।।
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी।।
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ।।
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी।।
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी।।
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी।।
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा।।
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू।।
दो0-गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ।।273।।
–*–*–
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी।।
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन।।
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी।।
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं।।
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी।।
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे।।
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे।।
दो0-प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु।।274।।
–*–*–
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।।
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं।।
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।।
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती।।
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे।।
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन।।
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि।।
दो0-आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु।।275।।
–*–*–
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे।।
सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा।।
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा।।
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा।।
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे।।
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई।।
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा।।
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही।।
छं0-अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा।।
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की।।
सो0-किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन।।276।।
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा।।
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई।।
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।।
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू।।
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू।।
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी।।
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू।।
दो0-दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात।।277।।
–*–*–
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी।।
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा।।
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका।।
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं।।
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ।।
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई।।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू।।
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।
दो0-तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार।।278।।
–*–*–
कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।।
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा।।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।।
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई।।
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।।
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे।।
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।
दो0-सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार।।279।।
–*–*–
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी।।
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।।
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू।।
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही।।
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही।।
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल।।
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता।।
दो0-एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु।।280।।
–*–*–
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं।।
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं।।
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू।।
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी।।
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा।।
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन।।
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति।।
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी।।
दो0-सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।281।।
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url