अयोध्या काण्ड-24 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand

राम चरित मानस अयोध्या काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में | raam charit maanas ayodhya kaand

 
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।।
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी।।
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू।।
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।।
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।।
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी।।
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी।।
दो0-लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु।।282।।
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ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी।।
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ।।
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई।।
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे।।
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा।।
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा।।
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी।।
दो0-कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि।।283।।
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रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई।।
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन।।
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी।।
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं।।
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी।।
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि।।
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ।।
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती।।
दो0-बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय।।284।।
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लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता।।
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी।।
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।।
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै।।
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू।।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल।।
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा।।
दो0-अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ।।285।।
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प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई।।
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की।।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की।।
दो0-सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि।।286।।
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तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी।।
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी।।
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे।।
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी।।
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई।।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं।।
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ।।
दो0-बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि।।287।।
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सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू।।
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन।।
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि।।
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही।।
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद।।
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती।।
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू।।
दो0-निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि।।288।।
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अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी।।
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी।।
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ।।
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं।।
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी।।
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की।।
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे।।
साधन सिद्ध राम पग नेहू।।मोहि लखि परत भरत मत एहू।।
दो0-भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ।।289।।
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राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती।।
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे।।
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई।।
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी।।
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू।।
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा।।
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ।।
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा।।
दो0-प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम।।290।।
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