गोस्वामी तुलसीदास श्री रामचरित मानस के रचयित गोस्वामी तुलसीदास का परिचय
श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था। पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था। तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास रखा गया। गोस्वामी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे। पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग की परिणति वैराग्य में हुई।एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे। पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा –
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।
गोस्वामी तुलसीदास के लिखे दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई, संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा, रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं।
१२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी, शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया।
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
तुलसीदास का जीवन परिचय :
तुलसीदास ने रामचरितमानस के लिए जाने जाते हैं। तुलसीदास जी भक्ति काल के सगुण भक्ति धारा राम भक्ति खा के प्रमुख कवि थे। रामचरितमानस महाकवि तुलसीदास के द्वारा ही लिखा गया है। ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास का जन्म 1532 मैं (अभुक्ता मूल नक्षत्र) हुआ था तुलसीदास का जन्म राजापुरा बांदा उत्तर प्रदेश में हुआ था और उस समय मुगलों का राज था। अकबर उस समय के शासक थे। तुलसी दास जी जन्म के समय पहला शब्द उनके मुँह से राम निकला था।
मूल रूप से तुलसीदास सूर्यपरिन ब्राह्मण थे तुलसीदास जी के माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्माराम शुक्ला था।बचपन से ही तुलसीदास जी का मन में राम भक्ति में लगता था। कुछ लोग तुलसीदास जी को वाल्मीकि का पुनर्जन्म मानते है तुलसीदास को भक्तों समाज सुधारक और कभी तीनों रूपों में जाना जाता है
मान्यता है की तुलसीदास जी ने बचपन में ही घर त्याग दिया और नरहरि ने उन्हें गोद ले लिया जहाँ उनके सानिध्य में शुरुआती शिक्षा प्राप्त की। उनके गुरु का नाम नरहरि (नरहर्यानंद ) था जो की रामशैल के रहने वाले थे। नरहरि ने ही उनका नाम तुलसीदास रखा। अयोध्या में यज्ञोपती संस्कार के बाद उन्होंने तुलसीदास को शास्त्र और वेदों की विधिवत शिक्षा दी।
तुलसीदास बाल्य काल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने बचपन में ही संस्कृत सीख ली और चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। तुलसीदास ने काशी में वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। तुलसीदास जी ने लगभग १५७४ के आस पास लेखन कार्य शुरू किया। उनकी बहुत सी रचनाये हैं जिनमे राम चरित मानस सर्वाधिक लोक प्रिय है। राम चरित मानस में चौपाई के माध्यम से भगवान् श्री राम की महिमा और चरित्र का विस्तार से वर्णन है। श्री राम चरित मानस तत्व ज्ञानियों के लिए ही नहीं अपितु आम जन तक अपनी पहुंच बना पाया।
तुलसीदास जी का विवाह रत्नावली (बुद्धिमती) से हुआ था और उनकी पत्नी का नाम दीन बंधु पाठक था। तुलसीदास जी के आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति मेंइनकी पत्नी का एक किस्सा है। तुलसीदास ने अपनी पत्नी के प्रेम में इस कदर खोये थे की एक रात उन्होंने नदी पार करके उनसे मिलने का मानस बनाया। उनके रत्नावली के घर पर चढ़ने के लिए सांप को रस्सी समझ कर उसके सहारे ऊपर चढ़ गए। इस पर उनकी पत्नी ने उन्हें उलाहना देते हुए समझाया की इतना प्यार यदि ईश्वर में लगाया होता तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता। यह घटना तुलसीदास जी को अंदर तक हिला गयी और उन्होंने भक्ति को ही अपना ध्येय बना लिया, उनके ज्ञान के चक्षु खुल गए। तुलसीदास को उनकी पत्नी ने कहा “अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत। सही मायनों में तुलसीदास जी को ज्ञान प्राप्त हुआ की भक्ति मार्ग ब्रह्मचर्य का पालन करके ही किया जा सकता है।राम चरित मानस के अलावा उनकी कृतियों में दोहावली, कवितावली, गीतावली, कृष्णावली, विनयपत्रिका प्रमुख हैं तथा लघु रचनाओं में वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, जानकी मंगल, रामलला नहछू, पार्वती मंगल और संकट मोचनप्रमुख हैं। तुलसीदास जी की रचनाये अवधि और ब्रज भाषा में रचित हैं। तुलसीदास की मृत्यु सन् 1623 में सावन के महीने में (जुलाई या अगस्त) गंगा नदी के किनारे अस्सी घाट पर हुआ।
रचनाएँ
- रामललानहछू
- वैराग्य-संदीपनी
- बरवै रामायण
- कलिधर्माधर्म निरुपण
- कवित्त रामायण
- छप्पय रामायण
- कुंडलिया रामायण
- छंदावली रामायण
- सतसई
- जानकी-मंगल
- पार्वती-मंगल
- श्रीकृष्ण-गीतावली
- झूलना
- रोला रामायण
- राम शलाका
- कवितावली
- दोहावली
- रामाज्ञाप्रश्न
- गीतावली
- विनयपत्रिका
- संकट मोचन
तुलसीदास जी के काव्य के बारे में : तुलसीदास जी के काव्य की भाषा अवधि और ब्रज है। सगुन भक्ति धारा के अग्रणी कवी तुलसीदास आम बोल चाल की भाषा को ही चुना। भाषा और शब्दों का संतुलन ही तुलसीदास के काव्य की विशेषता हैं जो अपना सन्देश पहुँचाने में सफल है। तुलसीदास के समय संस्कृत का बोल बाला था और प्रमुख कृतियां उसी भाषा में लिखी जाती थी, लेकिन उन्होंने अवधि भाषा में अपने काव्य को लिखा। उनकी रचनाओं को जो जन समर्थन मिला उसका कारन आम बोल चाल की भाषा ही था। प्रचलित मुहावरे, लोकोपतियाँ और देसज शब्दों का प्रयोग भी प्रमुख विशेषता है। इसके अलावा उन्होंने अरबी और फारसी शब्दों का भी खूब प्रयोग किया जैसे गुलाम, हराम, जाहिल। इसके अलावा फारसी के शब्दों को भी प्रयोग दिखाई पड़ता है जैसे गरीब, दगाबाज, मसीत, निबाह और खजाना आदि। अलंकारों का प्रयोग भी समुचित मात्रा में किया गया है। एक विशेष बात की तुलसीदास ने अपने सन्देश पर ध्यान दिया ना की शब्दों की कलाबाजी और पांडित्य प्रदर्शन।
तुलसीदास जी की भक्ति पद्धति : तुलसीदास जी ने अपने इष्ट राम के प्रति अनन्य भक्ति और समर्पण को प्रकट किया है। श्री राम में उनका विश्वास और श्रद्धा अटूट है। तुलसीदास जी की भक्ति में श्री राम समस्त जगत के स्वामी हैं और कण कण में उनका वास है, वे सूक्ष्म और वृहद रूपों में समाये हुए हैं। समस्त भक्ति का सार प्रभु राम के चरणों में स्थान पाकर उनकी भक्ति करना ही सबसे श्रेष्ठ है लेकिन कोई विरला ही श्री राम की कृपा से ऐसी भक्ति को प्राप्त कर सकता है।
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥२॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥३॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥
भक्ति मार्ग के कई साधनो का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं की तीर्थ यात्रा करना, योग, वैराग्य और ज्ञान में महारथ हाशिल करना, कर्म धर्म व्रत, दान तप तप यज्ञ, प्राणी मात्र पर दया, अपने गुरु और ब्राह्मण की सेवा, विद्या, विनय और विवेक आदि कई माध्यम हैं परन्तु इनका अंतिम फल श्री रघुनाथ जी की कृपा ही है। लेकिन बहुत कम लोगों ने श्री राम जी की कृपा से इस भक्ति के फल को प्राप्त किया है।
तुलसीदास जी ने प्रभु श्री राम को अनेको रूपों में दर्शाया और बताया की वो सर्वत्र विद्यमान हैं। वे सगुन और निर्गुण दोनों हैं। भक्ति सच्चे मन से यदि की जाए तो श्री राम का आशर्वाद अवश्य प्राप्त होता है। तुलसीदास ने मानवीय मूल्यों का पालन करते हुए भक्ति पर बल दिया।
प्रीति राम सों नीति पथ चलिय रागरिस जीति।
तुलसी संतन के मते इहैं भगति की रीत।
निति के पथ पर चलते हुए राग द्वेष को त्यागकर प्रीति की राह पर चलने से ही श्री राम की भक्ति संभव है। राम चरित मानस में स्थान स्थान पर इस बात पर बल दिया है की व्यक्ति का मन ईश्वर भक्ति की और अग्रसर हो अन्यथा इस जीवन को निरर्थक बताया गया है। सत्य निष्ठता और सदाचार का पालन करने से ही मनुष्य जीवन सफल है और ईश्वर की चरणों में स्थान मिलता है। तुलसीदास ने उस भक्ति को श्रेष्ठ माना जिसमे श्रेय और प्रेम का समन्वय हो। उन्होंने राम चरित मानस में भक्ति के तरीके को प्रदर्शित करके जीवन की सार्थकता को प्रकट किया। समाज में व्याप्त विभिन्न मत मतांतर सम्प्रदायों को मिटाकर एक सूत्र में पिरोने का काम किया और आदर्श रूप में श्री राम की भक्ति को स्थापित किया।
तुलसीदास जी ने अपनी भक्ति में विनय भाव को सबसे उच्च स्थान दिया। अहंकार को नष्ट करके प्रभु के चरणों में भक्ति को प्रधानता दी जिसमे दास्य भाव प्रधान है। तुलसीदास जी के प्रसिद्द दोहे एंव अर्थ
तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरण इक मंत्र है, परिहरु बचन कठोर।।अर्थ: मीठे बोल से चारों ओर सुख फैलता है। यह एक ऐसा मंत्र है जो सबको अपने वश में कर लेता है, इसलिए कठोर वचनों को छोड़ देना चाहिए।
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होए।।अर्थ: राम पर भरोसा रखकर बिना डर के सोना चाहिए। जो नहीं होना है, वह नहीं होगा, और जो होना है, वह होकर रहेगा।
सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिहीं नास।।अर्थ: यदि मंत्री, वैद्य और गुरु भय या लालच में आकर सच्चाई के बजाय मन को भाने वाली बातें कहें, तो राज्य, धर्म और शरीर का जल्दी ही नाश हो जाता है।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लग घट में प्रान।।अर्थ: दया धर्म की जड़ है, जबकि अहंकार सारे पापों का मूल है। जब तक शरीर में प्राण हैं, दया को नहीं छोड़ना चाहिए।
आवत ही हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह।।अर्थ: जहाँ आपका स्वागत खुशी से न हो और आँखों में स्नेह न दिखे, वहाँ नहीं जाना चाहिए, भले ही वहाँ सोने की बारिश हो।
नामु राम को कलपतरु, कलि कल्याण निवासु।
जो सिमरत भयो भाँग ते, तुलसी तुलसीदास।।अर्थ: राम का नाम कल्पवृक्ष की तरह है, जो कल्याण का घर है। इसका स्मरण करने से तुलसीदास जैसा साधारण व्यक्ति भी पवित्र हो गया।
तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।।अर्थ: विपत्ति में सच्चे साथी हैं - विद्या, विनम्रता, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, सत्य की प्रतिज्ञा और राम पर एकमात्र भरोसा।
काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पंडित मूरखौं, तुलसी एक समान।।अर्थ: जब तक मन में काम, क्रोध, अहंकार और लोभ की खदानें हैं, तब तक विद्वान और मूर्ख में कोई अंतर नहीं रहता।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं, मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु, बचन सुधा सम असन अहि।।अर्थ: सुंदर रूप देखकर मूर्ख और चतुर दोनों धोखा खा जाते हैं। मोर को देखो, उसकी वाणी अमृत जैसी है, पर वह साँप खाता है।
तुलसी काया खेत है, मनसा भयौ किसान।
पाप पुण्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान।।अर्थ: शरीर एक खेत है और मन उसका किसान। पाप और पुण्य दो बीज हैं, जो मनुष्य बोता है, वही अंत में काटता है।
ये दोहे तुलसीदास जी की गहरी भक्ति, जीवन दर्शन और नैतिकता को दर्शाते हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं।