स्याम बिण दुख पावां सजणी
स्याम बिण दुख पावां सजणी
स्याम बिण दुख पावां सजणी।कुण म्हां धीर बँधावाँ।।टेक।।
यौ संसार कुबधि री भाँडो, साथ संगत णा भावाँ।
साधाँ जणरी निंद्या ठाणाँ, करमरा कुगत कुमाँवाँ।
राम नाम बिनि मकुति न पावां, फिर चौरासी जाबाँ।
साध संगथ माँ भूल णा जावाँ, मूरख जणम गमावाँ।
(कुण=कौन, म्हां=मुझको, कुबधि=कुबुद्धि,अज्ञान, भांडो=बर्तन,भंडार, जण री=जनों की, करमरा= कर्म से, कुगत=बुरी बातें, कुमावां=कमाता रहता है, मकुति=मुक्ति, चौरासी=चौरासी लाख योनि)
मीराबाई का भजन "स्याम बिण दुख पावां सजणी" उनके श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण के बिना जीवन की कठिनाईयों और उनके आगमन की प्रतीक्षा को दर्शाती हैं।
मीराबाई कहती हैं कि श्रीकृष्ण के बिना उन्हें दुख होता है, और वह उनके बिना जीवन की कठिनाईयों का सामना करती हैं। वह कहती हैं कि यह संसार अज्ञान से भरा हुआ है, और इसमें साथ संगत की कोई परवाह नहीं है। वह राम नाम के बिना मुक्ति नहीं पा सकतीं, और चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती। वह साध संगत में भूलने से मूरख जन्म गंवाती हैं।
इस भजन में गहन भक्ति और सांसारिक मोह से मुक्ति की भावना अभिव्यक्त होती है। जब आत्मा श्रीकृष्णजी के बिना जीवन की कल्पना करती है, तब उसे दुख और अस्थिरता के अतिरिक्त कुछ भी अनुभव नहीं होता। यह भाव दर्शाता है कि संसार केवल अज्ञान और अस्थिरता से भरा हुआ है, जहां सच्ची शांति और मुक्ति केवल श्रीकृष्णजी की भक्ति से प्राप्त होती है।
यह संदेश आत्मा को प्रेरित करता है कि वह साध संगति से जुड़े और ईश्वर के नाम में अपना मन लगाए। जब व्यक्ति सांसारिक मोह और अज्ञान में उलझा रहता है, तब वह जीवन के सच्चे उद्देश्य से दूर चला जाता है। यह अनुभूति भक्ति की उस अवस्था को प्रकट करती है, जहां आत्मा केवल प्रभु के चरणों में स्थिर होकर मुक्ति का मार्ग प्राप्त कर सकती है।
श्रीकृष्णजी की आराधना जीवन को सार्थक बनाती है, और उनकी कृपा से ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर आत्मा अनंत आनंद प्राप्त करती है। यही भजन का सार है—ईश्वर की भक्ति से जुड़े रहना और संसार की अस्थिरता में न खोना। यही सच्ची मुक्ति और दिव्य आनंद का मार्ग है।
यह संदेश आत्मा को प्रेरित करता है कि वह साध संगति से जुड़े और ईश्वर के नाम में अपना मन लगाए। जब व्यक्ति सांसारिक मोह और अज्ञान में उलझा रहता है, तब वह जीवन के सच्चे उद्देश्य से दूर चला जाता है। यह अनुभूति भक्ति की उस अवस्था को प्रकट करती है, जहां आत्मा केवल प्रभु के चरणों में स्थिर होकर मुक्ति का मार्ग प्राप्त कर सकती है।
श्रीकृष्णजी की आराधना जीवन को सार्थक बनाती है, और उनकी कृपा से ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर आत्मा अनंत आनंद प्राप्त करती है। यही भजन का सार है—ईश्वर की भक्ति से जुड़े रहना और संसार की अस्थिरता में न खोना। यही सच्ची मुक्ति और दिव्य आनंद का मार्ग है।