स्याम मोरी बांहड़ली जी गहो

स्याम मोरी बांहड़ली जी गहो

स्याम मोरी बांहड़ली जी गहो।
या भवसागर मंझधार में थें ही निभावण हो॥
म्हाने औगण घणा रहै प्रभुजी थे ही सहो तो सहो।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी लाज बिरद की बहो॥
स्याम म्हां बांहड़िया जो गह्यां।।टेक।।
भोसागर मझधारां, बूड्यां थारो सरण लह्यां।
म्हारे अवगुण पार अपारा थें बिण कूण सह्यां।
मीराँ रे प्रभु हरि अबिनासी लाज बिरद री बह्यां।।
(बांहडिया=बांह,हाथ, भोसागर=संसार-सागर, थें विण=तुम्हारे बिना, बह्याँ=रक्खो)

मीराबाई का भजन "स्याम मोरी बांहड़ली जी गहो" उनके श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। मीराबाई श्रीकृष्ण से अपने जीवन की कठिनाइयों में सहारा देने की प्रार्थना करती हैं। वह कहती हैं कि उनके पास अनगिनत दोष हैं, लेकिन श्रीकृष्ण के बिना उनका कोई सहारा नहीं है। वह श्रीकृष्ण से अपने जीवन की कठिनाइयों में सहारा देने की प्रार्थना करती हैं, क्योंकि उनके बिना उनका कोई सहारा नहीं है। 


इस सुंदर भजन में भक्ति की पुकार और पूर्ण समर्पण का भाव प्रकट होता है। जब आत्मा संसार-सागर में डूबती प्रतीत होती है, तब केवल ईश्वर की कृपा ही उसे पार लगाने का संबल देती है। भक्त जब अपनी समस्त भूलों और अपूर्णताओं को स्वीकार कर लेता है, तब वह ईश्वर की शरण में अपनी रक्षा और मार्गदर्शन की याचना करता है।

यह अनुभूति भक्ति की सच्ची अवस्था को दर्शाती है—जहां समर्पण पूर्ण होता है, और मनुष्य अपने आराध्य को ही अपने जीवन का आधार मानता है। जब मन सांसारिक बंधनों और कष्टों में उलझता है, तब केवल प्रभु श्रीकृष्णजी की कृपा ही उसे संभाल सकती है। यह भजन आत्मा की गहन पुकार को प्रकट करता है, जहां भक्त केवल ईश्वर की शरण में ही सच्चा आश्रय पाता है।

श्रीकृष्णजी का प्रेम और उनकी कृपा ही वह दिव्य शक्ति है, जो आत्मा को अज्ञान, मोह और भय से मुक्त कर सकती है। यह भाव प्रेरित करता है कि जब भी जीवन कठिनाइयों में पड़े, तब हमें बिना संकोच प्रभु के चरणों में शरण लेनी चाहिए। यही भक्ति का मार्ग है—जहां ईश्वर का स्मरण और उनकी कृपा से आत्मा अपने समस्त संकटों से मुक्त होकर परम आनंद और शांति को प्राप्त करती है।
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