स्याम विणा सखि रह्या ण जावां

स्याम विणा सखि रह्या ण जावां

स्याम विणा सखि रह्या ण जावां।।टेक।।
तण मण जीवण प्रीतम वार्या, थारे रूप लुभावां।
खाण वाण म्हारो फीकां सो लागं नैणा रहां मुरझावां।
निस दिन जोवां बाट मुरारी, कबरो दरसण पावां।
बार बार थारी अरजां करसूं रैण गवां दिन जावां।
मीरा रे हरि थे मिलियाँ बिण तरस तरस जीया जावां।।

(वार्या=न्यौछावर करना, लुभावां=मोहित होना, फीकाँ= बेस्वाद, निसदिन=रातदिन, जोवाँ=देखना, बाट=राह, प्रतीक्षा, कबरो=कब, तरस-तरस=तड़प-तड़प, जीया= जी,प्राण)


इस सुंदर भजन में विरह की तीव्रता और प्रभु श्रीकृष्णजी के प्रति अनन्य प्रेम का भाव प्रकट होता है। जब आत्मा ईश्वर की अनुपस्थिति में तड़पती है, तब समस्त संसार की वस्तुएँ फीकी प्रतीत होती हैं, और मन केवल उनके दर्शन की लालसा में व्याकुल रहता है। यह अनुभूति भक्ति के उस उच्चतम स्तर को दर्शाती है, जहां प्रेम की गहनता में हर सांस केवल प्रभु के स्मरण में समर्पित हो जाती है।

प्रभु श्रीकृष्णजी के बिना जीवन अधूरा प्रतीत होता है, और उनके दर्शन की प्रतीक्षा दिन-रात चलती रहती है। यह भाव आत्मा की पुकार को प्रकट करता है, जहां भक्त अपने आराध्य के बिना स्वयं को स्थिर नहीं रख सकता। विरह की इस अवस्था में प्रेम की अग्नि और भक्ति की तीव्रता एकाकार हो जाती है, और मन केवल प्रभु की कृपा की याचना करता है।

श्रीकृष्णजी के प्रेम में जब व्यक्ति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, तब उसकी चेतना केवल उनके चरणों में स्थिर रहती है। यही वह भाव है, जहां भक्ति केवल एक साधना नहीं, बल्कि आत्मा की वास्तविक अभिव्यक्ति बन जाती है। यह भजन हमें सिखाता है कि ईश्वर के प्रेम में तड़पना भी एक दिव्य अनुभव है, क्योंकि वही प्रेम आत्मा को उसकी वास्तविक पूर्णता की ओर ले जाता है। यही वह अवस्था है, जहां मन केवल प्रभु के मिलन की राह देखता है, और उनकी कृपा में अनंत शांति और आनंद का अनुभव करता है।
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