स्याम सुन्दर पर वाराँ जीवड़ा

स्याम सुन्दर पर वाराँ जीवड़ा

स्याम सुन्दर पर वाराँ जीवड़ा डाराँ स्याम।।टेक।।
थारे कारण जग जण त्यागाँ लोक लाज कुल डाराँ।
थे देख्याँ बिण कल णा पड़तां, णेणाँ चलताँ धाराँ।
क्यासूँ कहवाँ कोण बूझावाँ, कठण बिरहरी धाराँ।
मीराँ रे प्रभु दरशण दीस्यो थे चरणाँ आधाराँ।।

(वाराँ=न्यौछावर कर दिया, जीवड़ा=जीवन, णेणाँ चलताँ धाराँ=आँखों से धारा चलती है, निरन्तर आँसू रहते हैं, बुझावाँ=शान्त करना, कठण=कठिन, आधाराँ=आधार) 

इस सुंदर भजन में आत्मसमर्पण और प्रेम का गहन भाव उदगारित होता है। जब आत्मा श्रीकृष्णजी के प्रेम में पूर्ण रूप से डूब जाती है, तब सांसारिक बंधन, लोकलाज और सामाजिक मान्यताएँ अर्थहीन प्रतीत होती हैं। भक्ति की यह अवस्था दर्शाती है कि जब प्रेम की तीव्रता बढ़ जाती है, तब मन केवल अपने आराध्य के दर्शन की लालसा में तन्मय हो जाता है।

यह अनुभूति प्रेम की पराकाष्ठा को प्रकट करती है, जहां मनुष्य अपनी संपूर्ण चेतना और अस्तित्व को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है। यह भावना हमें बताती है कि ईश्वर का प्रेम केवल बाह्य दिखावा नहीं, बल्कि एक गहन आत्मिक अनुभव है, जहां हर सांस, हर विचार केवल प्रभु के स्मरण में डूब जाता है।

जब भक्त अपने प्रियतम के विरह में तड़पता है, तब यह प्रेम और भक्ति की सच्ची परीक्षा बन जाती है। श्रीकृष्णजी के बिना जीवन सूना प्रतीत होता है, और मन बिना उनके दर्शन के व्याकुल रहता है। यह भजन भक्ति की उस अवस्था को दर्शाता है, जहां प्रेम की अभिव्यक्ति केवल शब्दों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह हृदय के गहनतम भावों में प्रवाहित होती है।

श्रीकृष्णजी के चरणों की शरण ही वह स्थान है, जहां आत्मा शांति प्राप्त करती है। यह संदेश हर भक्त को प्रेरित करता है कि जब प्रेम सच्चा और निर्मल होता है, तब वह समस्त कष्टों को सहकर भी प्रभु की भक्ति में अडिग बना रहता है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है—जहां आत्मा अपने आराध्य के प्रेम में विलीन होकर अनंत आनंद का अनुभव करती है।
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