वारी वारी हो राम हूँ वारी भजन

वारी वारी हो राम हूँ वारी भजन

वारी-वारी हो राम हूँ वारी, तुम आज्या गली हमारी।।टेक।।
तुम देख्याँ कल न पड़त है, जोऊँ बाट तुम्हारी।
कूण सखी सूं तुम रंग राते, हम सूँ अधिक पियारी।
किरपा कर मोहि दरसण दीज्यो, सब तकसीर बिसारी।
तुम सरणागत परमदयाला, भवजल तार मुरारी।
मीराँ दासी तुम चरण की, बार बार बलिहारी।।
 
(वारी-वारी=निछावर हो गई हूँ, आज्या=आ जाओ, रंग राते=अनुरक्त हो गये हो, तकसीर=अपराध, भवजल भवसागर, तार-पार करो)


सुन्दर भजन में भक्ति, समर्पण और आध्यात्मिक प्रेम का गहन संदेश समाहित है। परमात्मा के प्रति अटूट श्रद्धा और उनकी उपस्थिति की गहरी आकांक्षा स्पष्ट होती है। जब प्रेम और भक्ति अपने चरम पर पहुँचती है, तब आत्मा स्वयं को प्रभु के चरणों में निछावर कर देती है।

यह भाव पूर्ण समर्पण की ओर संकेत करता है। जब भक्त को यह प्रतीति होती है कि बिना प्रभु के उसका जीवन अधूरा है, तब वह उनकी खोज में सब कुछ त्यागने को तत्पर हो जाता है। अपने प्रियतम को हर मार्ग पर खोजते हुए, भक्त की व्याकुलता बढ़ती है। यह प्रेम सांसारिक नहीं, अपितु आत्मिक है, जिसमें कोई संदेह नहीं, कोई शर्त नहीं—बस अटूट अनुराग है।

करुणा और कृपा का यह आह्वान दर्शाता है कि ईश्वर का दर्शन केवल भौतिक नहीं, अपितु आंतरिक अनुभूति का विषय है। जब समर्पण और प्रेम की पराकाष्ठा होती है, तब प्रभु स्वयं अपने भक्त की पुकार सुनते हैं, उनकी तकसीरों को क्षमा करते हैं और भवसागर से उद्धार करते हैं।

मीराबाई का भाव इस अनुभूति को और भी सजीव बना देता है—उन्होंने स्वयं को श्रीकृष्णजी के चरणों में समर्पित कर दिया, और उनकी भक्ति किसी भी सांसारिक बंधन से परे थी। ऐसी अनन्य भक्ति आत्मा को शुद्ध करती है और उसे परम शांति का मार्ग दिखाती है। यह भजन ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठा और प्रेम की दिव्यता को उजागर करता है।
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