बस्याँ म्हारे नेणा माँ नँदलाल लिरिक्स

बस्याँ म्हारे नेणा माँ नँदलाल

मीरा भजन
वस्याँ म्हारे नेणा माँ नँदलाल ।।टेक।।
मोर मुगट मकराकृत कुण्डल अरूण तिलक सोहाँ भाल।
मोहण मूरत साँवराँ सूरत णेणा बण्या बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजाँ उर बैजंती माल।
मीराँ प्रभु संताँ सुखदायाँ भक्त बछल गोपाल।।
 
(बस्याँ=बसो, णेणण माँ=नैनों में,आँखों में, मकराकृत=मकर या मछली के आकार का, अरूण=लाल, मोहण=मोहना,मोह लेने वाली, साँवराँ=साँवली, बण्याँ=बने हुए हैं, सुधारस= अमृत के रस के समान, राजाँ=राजती है, सुशोभित होती है, उर=हृदय, बैजन्तीमाल= बैजन्ती माला,जिसे कृष्ण पहना करते थे, सुखदायाँ=सुख देने वाले, भक्त बछल= भक्त-वत्सल, गोपाल=कृष्ण) 

मीरा बाई की भक्ति में श्रीकृष्णजी की छवि अत्यंत मनमोहक और दिव्य रूप में उभरती है। उनके नैनों में बसे नंदलाल की मूरत मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक और बैजन्ती माला से सुशोभित है, जो उनकी अलौकिक और आकर्षक छवि को दर्शाती है। यह रूप केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रेम और आध्यात्मिक आनंद का स्रोत है, जो भक्त के हृदय को मोह लेता है। मुरली की मधुर धुन और सुधरस होठों की छवि भीतर की शांति और आनंद का बोध कराती है।

मीरा की भक्ति में श्रीकृष्णजी केवल एक देवता नहीं, बल्कि एक सखा, रक्षक और प्रेमी के रूप में उपस्थित हैं, जो संतों और भक्तों को सुख और शांति प्रदान करते हैं। यह प्रेम न केवल सांसारिक प्रेम से ऊपर है, बल्कि एक दिव्य आत्मीयता का अनुभव है, जो हर बाधा और पीड़ा को पार कर लेता है। भक्त की आत्मा में कृष्ण की मूरत इतनी गहराई से बस जाती है कि वह जीवन की हर परिस्थिति में उनसे जुड़ी रहती है।

मीरा की भक्ति की यह गहराई जीवन के संघर्षों और सामाजिक बाधाओं के बीच भी अडिग रहती है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयाँ झेलीं, परन्तु उनकी आत्मा में कृष्ण के प्रति प्रेम की ज्योति कभी मंद नहीं पड़ी। यह प्रेम उन्हें हर विपत्ति में सहारा देता है, और उनके हृदय को दिव्यता से भर देता है। उनके पदों में प्रेम, समर्पण और विश्वास की इतनी शक्ति है कि वे आज भी लोगों के हृदयों को छू जाते हैं।

सुन्दर भजन में श्रीकृष्णजी की अनुपम छवि का सुंदर वर्णन है। उनका मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, अरूण तिलक और बैजंती माला भक्त के मन को श्रद्धा और प्रेम से भर देती है। यह भाव केवल बाह्य सौंदर्य का नहीं, बल्कि उस दिव्यता का है जो आत्मा को आकर्षित करती है।

प्रभु की साँवली सूरत और मोहिनी मूरत भक्त के नेत्रों में इस प्रकार बस जाती है कि हर दिशा में केवल उनकी छवि ही दृष्टिगोचर होती है। उनका अधर सुधा रस से परिपूर्ण है, और मुरली की मधुर ध्वनि आत्मा को शांति और आनंद से भर देती है।

श्रद्धा और भक्ति का यह स्वरूप प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाता है। जब भक्ति पूर्णता को प्राप्त होती है, तब ईश्वर केवल ध्यान का विषय नहीं, बल्कि चेतना का केंद्र बन जाते हैं। यही अनुभूति आत्मा को संतोष और सच्ची मुक्ति प्रदान करती है।

मीराबाई के भाव में भक्ति की गहनता स्पष्ट होती है। यह प्रेम सांसारिक सीमाओं से परे, श्रीकृष्णजी के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक है। जब आत्मा परमात्मा से जुड़ जाती है, तब हर अनुभव दिव्यता से भर जाता है, और भक्ति अपने सर्वोच्च स्वरूप में पहुँचती है। यह भजन श्रीकृष्णजी की महिमा और उनकी कृपा का अनुपम स्तुति है।

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