राम मिलण रो घणो उमावो

राम मिलण रो घणो उमावो

राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊं बाटड़ियाँ
राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊं बाटड़ियाँ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै जक न पड़त है आँखड़ियाँ॥

तड़फत तड़फत बहु दिन बीते, पड़ी बिरह की फांसड़ियाँ।
अब तो बेग दया कर प्यारा, मैं छूं थारी दासड़ियाँ॥

नैण दुखी दरसणकूं तरसैं, नाभि न बैठें सांसड़ियाँ।
रात-दिवस हिय आरत मेरो, कब हरि राखै पासड़ियाँ॥

लगी लगन छूटणकी नाहीं, अब क्यूं कीजै आँटड़ियाँ।
मीरा के प्रभु कब र मिलोगे, पूरो मनकी आसड़ियाँ॥
 
इस पद के हिंदी शब्दार्थ :- घणी =घनी, बहुत अधिक (राम मिलने का चाव बहुत ही अधिक है ) उमाव = उमंग( मन में राम मिलन की उमंग बहुत अधिक है .) बाटड़ियाँ = राह देखना, बाट जोवना, जक =चैन या आराम पड़ना (मानसिक शान्ति के नहीं होने पर अक्सर कहा जाता है की तुमको जक नहीं पड़ रहा है ) फाँसड़ियाँ = फांसी (संताप)। साँसड़ियाँ =सांसें। पासड़ियाँ =समीप। आँटड़ियाँ =आपत्ति, बाधा, संकट। आसड़ियाँ = आशाएँ, इच्छाएं.

हिंदी में अर्थ : इस पद (मीरा बाई के पद) का हिंदी अर्थ है की मुझे राम से मिलने का बहुत ही अधिक चाव है. मैं रोज ही उठकर (आराम नहीं होने के भाव में व्यक्ति बार बार उठ बैठता है ) राह तकती हूँ. बाट जोना से आशय है की किसी की राह देखना, इन्तजार में व्यथित होना. मुझे राम से मिलने का मन में बहुत ही अधिक चाव है. मुझे अब इश्वर के दर्शन ही चाहिए, इसके अतिरिक्त मुझे अब कुछ भी अच्छा, सुहावना नहीं लगता है. मेरी अंखियों को / आखों को अब कहीं पर भी आराम की प्राप्ति नहीं होती है. 
मुझे तड़पते बहुत ही अधिक दिन बीत चुके हैं और विरह की वेदना की फांसी मुझे नित्य ही लगती रही है. अब तो जल्दी ही मुझ पर दया करो, मैं आपकी दासी हूँ .
 
विरह की पीड़ा जब गहन हो जाती है, तब हर क्षण प्रभु के दर्शन की लालसा से व्याकुल हो उठता है। यह केवल बाहरी व्यथा नहीं, बल्कि आत्मा की वह पुकार है, जो ईश्वर से मिलने के लिए तड़पती है। जब प्रेम अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है, तब मन में कोई अन्य विचार नहीं रह जाता—सिर्फ उस मधुर मिलन की प्रतीक्षा, जो समस्त वेदना को समाप्त कर सके।

नयनों की व्यथा, हृदय की आरत, और सांसों की व्याकुलता केवल बाहरी नहीं, बल्कि यह भीतर की उस तपस्या का स्वरूप है, जो भक्त को ईश्वर की अनवरत स्मृति में डुबो देता है। यह विरह केवल कठिनाई नहीं, बल्कि भक्ति की पराकाष्ठा भी है—जहाँ प्रेम सांसारिक सीमाओं से परे जाकर ईश्वर की कृपा का पूर्ण अनुभव करना चाहता है।

जब भक्ति संपूर्णता को प्राप्त कर लेती है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—केवल प्रभु के चरणों में अर्पण की वह अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूरी तरह समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस अनुभूति को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति। यही वह अवस्था है, जहाँ भक्त और भगवान एक-दूसरे में संपूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं।



 
यह भजन प्रायः राग प्रभाती से सबंधित है .
राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊं बाटड़ियाँ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ॥
तड़फत तड़फत बहु दिन बीते, पड़ी बिरह की फांसड़ियाँ।
अब तो बेग दया कर प्यारा, मैं छूं थारी दासड़ियाँ॥
नैण दुखी दरसणकूं तरसैं, नाभि न बैठें सांसड़ियाँ।
रात दिवस हिय आरत मेरो, कब हरि राखै पासड़ियाँ॥
लगी लगन छूटणकी नाहीं, अब क्यूं कीजै आँटड़ियाँ।
मीरा के प्रभु कब र मिलोगे, पूरो मनकी आसड़ियाँ॥
 
राम के मिलन की उत्कंठा मन में ऐसी उमड़ती है कि हर सुबह उनकी राह ताकती हूँ। बिना उनके दर्शन के कुछ भी भाता नहीं, आँखें जैसे थम सी गई हैं। विरह की फाँस चुभती है, दिन तड़पते बीतते हैं। हे प्रिय, अब तो दया करो, मैं तो तुम्हारी दासी हूँ। आँखें दर्शन को तरसती हैं, साँसें जैसे रुक-रुककर चलती हैं। रात-दिन हृदय व्याकुल, कब प्रभु मुझे पास बुलाएँगे? यह प्रेम की लगन छूटती नहीं, अब और देर क्यों? मीराबाई का मन उनकी एक झलक को तरसता है, जो मन की सारी आस पूरी कर दे।
Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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