घड़ी चेण णा आवड़ां

घड़ी चेण णा आवड़ां

घड़ी चेण णा आवड़ां, थें दरसण बिण मोय
घड़ी चेण णा आवड़ां, थें दरसण बिण मोय।
घाम न भावाँ नींद न आवाँ, बिरह सतावाँ मोय।
घायल री घूम फिरां म्हारो दरद ण जाण्या कोय।
प्राण गमायाँ झूरतां रे, नैण गुमायां रोय।
पंथ निहारां डगर मझारा, ऊभी मारग जोय।
मीरां रे प्रभु कब रे मिलोगां, थें मिल्यां सुख होय।।
(घड़ी चेण न आवड़ाँ=एक पल के लिये भी चैन नहीं मिलता, झूरतां=शोकावेग में ही)
 
भक्ति का सर्वोच्च रूप तब प्रकट होता है जब साधक और ईश्वर के बीच की दूरी असहनीय हो जाती है। यह विरह केवल बाहरी विछोह नहीं, बल्कि आत्मा की उस गहन पुकार है, जो हर क्षण अपने प्रियतम के मिलन की आस में तड़पती है। जब यह प्रेम अपने शुद्धतम स्वरूप में पहुँचता है, तब मनुष्य के लिए कोई अन्य आश्रय नहीं बचता—सिर्फ प्रभु का दर्शन ही उसकी समस्त वेदना को समाप्त कर सकता है।

विरह का ताप शरीर को जलाता है, मन को अशांत करता है, और प्रत्येक क्षण को एक अंतहीन प्रतीक्षा में बदल देता है। यहाँ न दिन का कोई सुख है, न रात का कोई आराम—क्योंकि प्रेम जब पूर्ण समर्पण की अवस्था में पहुँचता है, तब वह किसी सांसारिक संतोष से शांत नहीं हो सकता। यह केवल ईश्वर के सान्निध्य से ही समाप्त होने वाली व्याकुलता है, जो आत्मा को उसकी शाश्वत शांति में लीन कर सकती है।

प्रभु के बिना यह संसार केवल एक कठिन यात्रा प्रतीत होती है, जहाँ प्रत्येक पथ सिर्फ उनकी ओर जाने की दिशा में देखा जाता है। हर मार्ग उनकी प्रतीक्षा में प्रतीत होता है, हर दृष्टि केवल उनके आगमन की अभिलाषा को प्रकट करती है। यह भक्ति की पराकाष्ठा है, जहाँ प्रेम किसी साधारण अनुराग नहीं, बल्कि आत्मा का अंतिम सत्य बन जाता है।

मीराँ की भक्ति इसी भावना को पूर्ण करती है। जब प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥

अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
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