बासुरी सुनूंगी बनसीवालेकूं जान न देऊंगी

बासुरी सुनूंगी बनसीवालेकूं जान न देऊंगी

बासुरी सुनूंगी
बासुरी सुनूंगी। मै तो बासुरी सुनूंगी। बनसीवालेकूं जान न देऊंगी॥टेक॥
बनसीवाला एक कहेगा। एकेक लाख सुनाऊंगी॥१॥
ब्रिंदाबनके कुजगलनमों। भर भर फूल छिनाऊंगी॥२॥
ईत गोकुल उत मथुरा नगरी। बीचमें जाय अडाऊंगी॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल लपटाऊंगी॥४॥
 
बंसी की मधुर धुन वह प्रभु का आह्वान है, जो मीरा के मन को मोह लेता है। यह संकल्प, कि बनसीवाले को कभी नहीं छोड़ूँगी, वह अटूट प्रेम है, जो आत्मा को प्रभु के साथ बाँधे रखता है। बंसी की तान सुनना, वह भक्ति है, जो हृदय को उनके रंग में डुबो देती है, जैसे कमल सूरज की ओर मुड़ता है।

बनसीवाले का एक बोल लाखों के बराबर है, और मीरा का हर फूल अर्पित करना, वह निश्छल भेंट है, जो वृंदावन की कुँज-गलियों में प्रभु को समर्पित होती है। गोकुल और मथुरा के बीच राह रोककर प्रभु से मिलने की चाह, वह तड़प है, जो भक्त को प्रियतम के निकट ले जाती है।

मीरा का गिरधर के चरण-कमलों से लिपटना, वह समर्पण है, जो हर सांस को प्रभु की सेवा में अर्पित करता है। यह भक्ति वह नदी है, जो चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देती है।
 
खबर मोरी लेजारे बंदा जावत हो तुम उनदेस॥ध्रु०॥
हो नंदके नंदजीसु यूं जाई कहीयो। एकबार दरसन दे जारे॥१॥
आप बिहारे दरसन तिहारे। कृपादृष्टि करी जारे॥२॥
नंदवन छांड सिंधु तब वसीयो। एक हाम पैन सहजीरे।
जो दिन ते सखी मधुबन छांडो। ले गयो काळ कलेजारे॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सबही बोल सजारे॥४॥

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरिसे मिलूं कैसे जाय।
ऊंची नीची राह लपटीली, पांव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूं जतनसे, बार बार डिग जाय॥
ऊंचा नीचा महल पियाका म्हांसूं चढ़्‌यो न जाय।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय॥
कोस कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड़ पैंड़ बटमार।
है बिधना, कैसी रच दीनी दूर बसायो म्हांरो गांव॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु दई बताय।
जुगन जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय॥
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