भई हों बाबरी सुनके बांसरी

भई हों बाबरी सुनके बांसरी

भई हों बाबरी सुनके बांसरी
भई हों बाबरी सुनके बांसरी, हरि बिनु कछु न सुहाये माई।।टेक।।
श्रवन सुनल मेरी सुध बुध बिसरी, लगी रहत तामें मन की गांसूँ री।
नैम धरम कोन कीनी मुरलिया, कोन तिहारे पासूँ, री।
मीरां के प्रभु बस कर लीने, सप्त ताननि की फाँसूँ री।।
 
बंसी की तान सुनकर मन उस प्रभु के प्रेम में ऐसा डूब जाता है, कि संसार का कुछ भी सुहाता नहीं। यह बंसी वह जादू है, जो मीरा को बावरी बना देती है, और हरि के बिना जीवन सूना लगता है। यह भक्ति वह रस है, जो हृदय को प्रभु के रंग में रंग देता है, जैसे चाँदनी चाँद के बिना अधूरी है।

श्रवणों में बंसी की धुन पड़ते ही सुध-बुध खो जाती है, और मन उस मुरलिया की तान में उलझकर रह जाता है। यह प्रश्न, कि मुरलिया, तूने कौन-सी नेम-धरम की साधना की, जो प्रभु के इतने पास है, वह भक्त की उत्कट चाह है, जो प्रभु की निकटता माँगती है।

मीरा का कहना, कि प्रभु ने सप्त तानों की फाँसी से उसे बाँध लिया, वह समर्पण है, जो आत्मा को हरि के प्रेम में जकड़ लेता है। यह भक्ति वह नदी है, जो गिरधर के चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देती है।
 
गांजा पीनेवाला जन्मको लहरीरे॥ध्रु०॥
स्मशानावासी भूषणें भयंकर। पागट जटा शीरीरे॥१॥
व्याघ्रकडासन आसन जयाचें। भस्म दीगांबरधारीरे॥२॥
त्रितिय नेत्रीं अग्नि दुर्धर। विष हें प्राशन करीरे॥३॥
मीरा कहे प्रभू ध्यानी निरंतर। चरण कमलकी प्यारीरे॥४॥

गांजा पीनेवाला जन्मको लहरीरे॥ध्रु०॥
स्मशानावासी भूषणें भयंकर। पागट जटा शीरीरे॥१॥
व्याघ्रकडासन आसन जयाचें। भस्म दीगांबरधारीरे॥२॥
त्रितिय नेत्रीं अग्नि दुर्धर। विष हें प्राशन करीरे॥३॥
मीरा कहे प्रभू ध्यानी निरंतर। चरण कमलकी प्यारीरे॥४॥

गोपाल राधे कृष्ण गोविंद॥ गोविंद॥ध्रु०॥
बाजत झांजरी और मृंदग। और बाजे करताल॥१॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। गलां बैजयंती माल॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपाल॥३॥ 

(श्रवण=कान, गाँसु=फन्दा, नेम=नियम, कोन=कौन-सा, सप्त ताननि की=सात स्वरों की (सात स्वर ये हैं-सा रे गा मा पा धा नी)
 
गोपाल, राधे, कृष्ण, गोविंद का नाम जपना, वह भक्ति है, जो मन को प्रभु की मस्ती में डुबो देता है। झांझ, मृदंग, और करताल की ताल, वह उत्सव है, जो प्रभु की लीला को और रंगीन बनाता है। यह संगीत वह लय है, जो आत्मा को प्रभु के साथ थिरकने को प्रेरित करता है।

मोर मुकुट, पीतांबर, और वैजयंती माला में शोभायमान कृष्ण का रूप, वह सौंदर्य है, जो हृदय को मोह लेता है। यह शोभा उस फूल की सुगंध है, जो भक्त के मन को तृप्त करती है। प्रभु का यह अलौकिक स्वरूप, हर भक्त के लिए आकर्षण का केंद्र है।

मीरा का गिरधर को भक्तों का प्रतिपाल कहना, वह विश्वास है, जो प्रभु की कृपा पर अटल रहता है। यह भक्ति वह नदी है, जो गोविंद के चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देती है।
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