उर में णाख चोर गड़े मीरा बाई पदावली

उर में णाख चोर गड़े मीरा बाई पदावली

उर में णाख चोर गड़े
उर में णाख चोर गड़े।
अब कैसेहुँ निकसत निहं ऊधों, तिरछै ह्व जे अड़े।
णेणा बणज बसावाँ री, म्हारा साँवरा आवाँ।।टेक।।
णैणा म्हौला साँवरा राज्याँ, डरताँ पलक णा लावाँ।
म्हाँरां हिरवाँ बस्ताँ मुरारी, पल पल दरसण पावाँ। 
 स्याम मिलण सिंगार सजावाँ, सुखरी सेज बिछायाँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर बार सार बलि जावाँ।।

(बणज=कमल के समान कोमल, पलक णा लावाँ= पलक न मारना,आँखें खुली ही रखना)


प्रभु का प्रेम हृदय में ऐसा चोर-सा बस गया है कि मन कहीं और ठहर ही नहीं पाता। उनकी तिरछी नजर ने आत्मा को बांध लिया, और अब वह निकलने का नाम नहीं लेता। सांवरे का मोहक रूप आंखों में रम गया है, डर है कि पलक झपकने से कहीं वह छवि ओझल न हो जाए। यह प्रेम ऐसा है, जैसे कमल-सी कोमल आंखें हर पल उनके दर्शन को तरसती हों।

मन में हरे-भरे बस्तर बसते हैं, जहां मुरारी की छवि पल-पल नजर आती है। उनके मिलन की तैयारी में सिंगार सजता है, सुख की सेज बिछती है, मानो हर कर्म प्रभु को समर्पित हो। मीरा का हृदय गिरधरनागर पर न्योछावर है, जैसे कोई दीया केवल एक ज्योत के लिए जलता हो। यह भक्ति का वह रंग है, जो आत्मा को प्रभु के प्रेम में डुबोकर हर सांस को उनके नाम से सजा देता है। 
 
थारो विरुद्ध घेटे कैसी भाईरे ॥ध्रु०॥
सैना नायको साची मीठी । आप भये हर नाईरे ॥१॥
नामा शिंपी देवल फेरो । मृतीकी गाय जिवाईरे ॥२॥
राणाने भेजा बिखको प्यालो । पीबे मिराबाईरे ॥३॥

नही जाऊंरे जमुना पाणीडा । मार्गमां नंदलाल मळे ॥ध्रु०॥
नंदजीनो बालो आन न माने । कामण गारो जोई चितडूं चळे ॥१॥
अमे आहिउडां सघळीं सुवाळां । कठण कठण कानुडो मळ्यो ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । गोपीने कानुडो लाग्यो नळ्यो ॥३॥

नही तोरी बलजोरी राधे ॥ध्रु०॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे । छीन लीई बांसरी ॥१॥
सब गोपन हस खेलत बैठे । तुम कहत करी चोरी ॥२॥
हम नही अब तुमारे घरनकू । तुम बहुत लबारीरे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल बलिहारीरे ॥४॥

नाव किनारे लगाव प्रभुजी नाव किना० ॥ध्रु०॥
नदीया घहेरी नाव पुरानी । डुबत जहाज तराव ॥१॥
ग्यान ध्यानकी सांगड बांधी । दवरे दवरे आव ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । पकरो उनके पाव ॥३॥
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥
 
मीरा अपने पैरों मे घुंघरू बांध नाचती हैं, वे प्रभु की दासी हो गई, लोग कहते हैं वे पागल हो गई। रिश्तेदार उनको कुलनाशी कहते हैं, राणा ने उनके लिए विष भेजा जिसे वह हंसते हुए पी गई, मीरा के प्रभु अविनाशी हैं जो उन्हें सहज ही प्राप्त हो गए हैं। 
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