गोहनें गुपाल फिरूँ मीरा बाई पदावली
गोहनें गुपाल फिरूँ मीरा बाई पदावली
गोहनें गुपाल फिरूँ, ऐसी आवत मन में
गोहनें गुपाल फिरूँ, ऐसी आवत मन में।
अवलोकन बारिज बदन बिबस भई तन में।
मुरली कर लकुट लेऊं पीत बसन वारूँ।
काछी गोप भेष मुकट गोधन सँग चारूँ।
हम भई गुलफाम लता, बृन्दावन रैनाँ।
पशु पंछी मरकट मुनी, श्रवन सुनत बैनाँ।
गुरूजन कठिन कानि कासौं री कहिए।
मीराँ प्रभु गिरधर मिलि ऐसे ही रहिए।।
गोहनें गुपाल फिरूँ, ऐसी आवत मन में।
अवलोकन बारिज बदन बिबस भई तन में।
मुरली कर लकुट लेऊं पीत बसन वारूँ।
काछी गोप भेष मुकट गोधन सँग चारूँ।
हम भई गुलफाम लता, बृन्दावन रैनाँ।
पशु पंछी मरकट मुनी, श्रवन सुनत बैनाँ।
गुरूजन कठिन कानि कासौं री कहिए।
मीराँ प्रभु गिरधर मिलि ऐसे ही रहिए।।
(गोहनें=साथ साथ, अवलोकत=देखकर, बारिजबदन=कमल मुख, लकुट=छड़ी, बसन=वस्त्र, काछी=धारण कर, चारूँ= विचरण करूँ, गुलफाम=सुन्दर, रैनाँ=धूल, मरकट=मर्कट,बन्दर, कानि=मर्यादा)
भक्ति की चरम अनुभूति तब प्रकट होती है जब मनुष्य अपनी समस्त सांसारिक पहचान को त्यागकर अपने ईष्ट में रम जाता है। यह केवल प्रेम की सामान्य अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि वह गहन अनुभूति है, जहाँ मनुष्य स्वयं को श्रीकृष्ण के संग गोपों की भांति विचरण करने योग्य अनुभव करता है। यह प्रेम बाहरी सीमाओं से परे, हृदय की अनवरत यात्रा है।
श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से मनुष्य की चेतना परिवर्तित हो जाती है। उनकी छवि, उनका माधुर्य, और उनकी दिव्यता मात्र से आत्मा स्वतः ही उनके चरणों में समर्पित हो जाती है। जब उनके अधरों पर बंसी सुशोभित होती है, जब उनके मस्तक पर मोर मुकुट और पीतांबर की शोभा प्रकट होती है, तब यह सौंदर्य केवल दृष्टि से नहीं, बल्कि भावनाओं से भी अनुभूत होता है।
गोपों के वेश में उनका सान्निध्य पाना, उनके संग गोधन चराना, उनकी मधुर चितवन से मोहित होना—यह केवल सांसारिक क्रियाएँ नहीं, बल्कि भक्ति का वह मधुर स्वरूप है, जहाँ साधक हर पल अपने ईष्ट के साथ स्वयं को समर्पित अनुभव करता है। यह प्रेम केवल उपासना तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा का वह विलय है, जो जीवन की संपूर्णता को ईश्वर में देखता है।
मीराँ की भक्ति इसी प्रेम की पराकाष्ठा है। जब यह अनुराग अपने चरम स्तर को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई सांसारिक द्वंद्व नहीं रहता—सिर्फ ईश्वर की मधुर अनुभूति और उनके चरणों में पूर्ण विलय की भावना। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस भावना को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों में अनवरत समर्पण।
श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से मनुष्य की चेतना परिवर्तित हो जाती है। उनकी छवि, उनका माधुर्य, और उनकी दिव्यता मात्र से आत्मा स्वतः ही उनके चरणों में समर्पित हो जाती है। जब उनके अधरों पर बंसी सुशोभित होती है, जब उनके मस्तक पर मोर मुकुट और पीतांबर की शोभा प्रकट होती है, तब यह सौंदर्य केवल दृष्टि से नहीं, बल्कि भावनाओं से भी अनुभूत होता है।
गोपों के वेश में उनका सान्निध्य पाना, उनके संग गोधन चराना, उनकी मधुर चितवन से मोहित होना—यह केवल सांसारिक क्रियाएँ नहीं, बल्कि भक्ति का वह मधुर स्वरूप है, जहाँ साधक हर पल अपने ईष्ट के साथ स्वयं को समर्पित अनुभव करता है। यह प्रेम केवल उपासना तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा का वह विलय है, जो जीवन की संपूर्णता को ईश्वर में देखता है।
मीराँ की भक्ति इसी प्रेम की पराकाष्ठा है। जब यह अनुराग अपने चरम स्तर को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई सांसारिक द्वंद्व नहीं रहता—सिर्फ ईश्वर की मधुर अनुभूति और उनके चरणों में पूर्ण विलय की भावना। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस भावना को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों में अनवरत समर्पण।
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥
बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।।
ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक।
गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।।
मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस।
बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।।
जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस।
तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।।
मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस।
मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।
अरज करे छे मीरा रोकडी। उभी उभी अरज॥ध्रु०॥
माणिगर स्वामी मारे मंदिर पाधारो सेवा करूं दिनरातडी॥१॥
फूलनारे तुरा ने फूलनारे गजरे फूलना ते हार फूल पांखडी॥२॥
फूलनी ते गादी रे फूलना तकीया फूलनी ते पाथरी पीछोडी॥३॥
पय पक्कानु मीठाई न मेवा सेवैया न सुंदर दहीडी॥४॥
लवींग सोपारी ने ऐलची तजवाला काथा चुनानी पानबीडी॥५॥
सेज बिछावूं ने पासा मंगावूं रमवा आवो तो जाय रातडी॥६॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तमने जोतमां ठरे आखडी॥७॥
आज मारे साधुजननो संगरे राणा। मारा भाग्ये मळ्यो॥ध्रु०॥
साधुजननो संग जो करीये पियाजी चडे चोगणो रंग रे॥१॥
सीकुटीजननो संग न करीये पियाजी पाडे भजनमां भंगरे॥२॥
अडसट तीर्थ संतोनें चरणें पियाजी कोटी काशी ने कोटी गंगरे॥३॥
निंदा करसे ते तो नर्क कुंडमां जासे पियाजी थशे आंधळा अपंगरे॥४॥
मीरा कहे गिरिधरना गुन गावे पियाजी संतोनी रजमां शीर संगरे॥५॥
सांवरा म्हारी प्रीत निभाज्यो जी॥
थे छो म्हारा गुण रा सागर, औगण म्हारूं मति जाज्यो जी।
लोकन धीजै (म्हारो) मन न पतीजै, मुखडारा सबद सुणाज्यो जी॥
मैं तो दासी जनम जनम की, म्हारे आंगणा रमता आज्यो जी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बेड़ो पार लगाज्यो जी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥
बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।।
ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक।
गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।।
मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस।
बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।।
जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस।
तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।।
मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस।
मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।
अरज करे छे मीरा रोकडी। उभी उभी अरज॥ध्रु०॥
माणिगर स्वामी मारे मंदिर पाधारो सेवा करूं दिनरातडी॥१॥
फूलनारे तुरा ने फूलनारे गजरे फूलना ते हार फूल पांखडी॥२॥
फूलनी ते गादी रे फूलना तकीया फूलनी ते पाथरी पीछोडी॥३॥
पय पक्कानु मीठाई न मेवा सेवैया न सुंदर दहीडी॥४॥
लवींग सोपारी ने ऐलची तजवाला काथा चुनानी पानबीडी॥५॥
सेज बिछावूं ने पासा मंगावूं रमवा आवो तो जाय रातडी॥६॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तमने जोतमां ठरे आखडी॥७॥
आज मारे साधुजननो संगरे राणा। मारा भाग्ये मळ्यो॥ध्रु०॥
साधुजननो संग जो करीये पियाजी चडे चोगणो रंग रे॥१॥
सीकुटीजननो संग न करीये पियाजी पाडे भजनमां भंगरे॥२॥
अडसट तीर्थ संतोनें चरणें पियाजी कोटी काशी ने कोटी गंगरे॥३॥
निंदा करसे ते तो नर्क कुंडमां जासे पियाजी थशे आंधळा अपंगरे॥४॥
मीरा कहे गिरिधरना गुन गावे पियाजी संतोनी रजमां शीर संगरे॥५॥
सांवरा म्हारी प्रीत निभाज्यो जी॥
थे छो म्हारा गुण रा सागर, औगण म्हारूं मति जाज्यो जी।
लोकन धीजै (म्हारो) मन न पतीजै, मुखडारा सबद सुणाज्यो जी॥
मैं तो दासी जनम जनम की, म्हारे आंगणा रमता आज्यो जी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बेड़ो पार लगाज्यो जी॥