गोविन्द सूँ प्रीत करत मीरा पदावली

गोविन्द सूँ प्रीत करत तब ही क्यूँ न हटकी मीरा बाई पदावली

गोविन्द सूँ प्रीत करत तब ही क्यूँ न हटकी
गोविन्द सूँ प्रीत करत तब ही क्यूँ न हटकी।।टेक।।
अब तो बात फैल गई, जैसे बीज बट की।
बीच को बिचार नाहीं, छाँय परी तट की।
अब चूकौ तो और नाहीं, जैसे कला नट की।।
जल के बुरी गाँठ परी, रसना गुन रटकी।
अब तो छुड़ाय हारी, बहुत बार झटकी।।
घर-घर में घोल मठोल, बानी घट-घट की।
सब ही कर सीस धरी लोक-लाज पटकी।।
मद की हस्ती समान, फिरत प्रेम लटकी।
दासी मीरा भक्ति बूँद, हिरदय बिच गटकी।।
 
श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम एक बार जागृत हो जाए, तो फिर उसे रोका नहीं जा सकता—वह एक ऐसी प्रवाहमान धारा बन जाता है, जो हर सांस में समाहित हो जाता है। यह अनुराग कोई साधारण मोह नहीं, बल्कि वह सच्चा समर्पण है, जिसमें भक्ति अपने चरम स्तर पर पहुँच जाती है। जब यह प्रेम आत्मा को स्पर्श करता है, तब कोई सांसारिक विचार, कोई सामाजिक रीति-रिवाज इसे रोक नहीं सकते।

मीराँ का प्रेम किसी सांसारिक संबंध की भांति क्षणिक नहीं, बल्कि वह उस परम अनुभूति की अभिव्यक्ति है, जिसमें कोई बाधा टिक नहीं सकती। जब यह प्रेम संपूर्ण रूप से जीवन में उतरता है, तब इसमें कोई विचलन नहीं होता, कोई संदेह नहीं रहता—सिर्फ ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा और समर्पण ही शेष रह जाता है।

जब भक्ति पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, तब उसमें लोकलाज और सामाजिक सीमाएँ स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं। यह प्रेम किसी बाहरी पहचान की आवश्यकता नहीं रखता—यह तो आत्मा का वह दिव्य पुकार है, जो प्रभु के चरणों में अपना संपूर्ण अस्तित्व समर्पित करने के लिए आतुर होता है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥

अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥

अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्‌यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥
Next Post Previous Post