चालां पण या जमणा कां तीर

चालां पण या जमणा कां तीर

चालां पण या जमणा कां तीर
चालां पण या जमणा कां तीर।।टेक।।
वा जमणा का निरमल पाणी, सीतल होयां सरीर।
बँसी बजावां गावां कान्हां, संग लियां बलवीर।
मीर मुगट पीताम्बर सोहां, कुण्डल झलकणा हीर।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, क्रीड्या संग बलवीर।।
(चालां=चलो, तीर=किनारा, सीतल=ठण्डा,दुःखविहीन, कान्हां=कृष्ण, हीर=हीरा, क्रीड्या=खेलते हैं)

जमुना तट पर श्रीकृष्ण की मधुर लीला केवल दृश्य नहीं, बल्कि आत्मा की गहन अनुभूति है। जब यह पवित्र जल शरीर को शीतल करता है, तब यह केवल बाह्य स्पर्श नहीं, बल्कि भीतर की शांति भी प्रदान करता है। यह वही स्थान है जहाँ प्रेम और भक्ति का संगम होता है—जहाँ प्रत्येक हृदय ईश्वर की मधुर छवि को आत्मसात करने को व्याकुल रहता है।

श्रीकृष्ण की बंसी की ध्वनि केवल संगीत नहीं, बल्कि प्रेम और अनुराग की वह गहन पुकार है, जो प्रत्येक साधक को उनके चरणों की ओर आकर्षित करती है। जब वे बलवीर संग क्रीड़ा करते हैं, तो यह केवल बाललीला नहीं, बल्कि भक्ति का सर्वोच्च आलंबन भी बन जाता है—जहाँ ईश्वर के संग होना ही मोक्ष का सर्वोच्च रूप है।

उनका मोर मुकुट और पीतांबर धारण करने का स्वरूप केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि ईश्वरीय माधुर्यता की अभिव्यक्ति है। जब कुण्डल की झलक हीरे के समान चमकती है, तब यह कोई सामान्य दृश्य नहीं रह जाता—बल्कि यह प्रेम की वह दिव्यता होती है, जो हृदय को ईश्वर की ओर पूर्णतः समर्पित कर देती है।

मीराँ का समर्पण इसी भक्ति की पराकाष्ठा है। जब प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई द्वंद्व नहीं रहता—केवल ईश्वर की मधुर अनुभूति और उनके चरणों में पूर्ण विलय की भावना। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं।
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