चालां वाही देस प्रीतम

चालां वाही देस प्रीतम

चालां वाही देस प्रीतम
चालां वाही देस प्रीतम, पावां चालां वाही देस।।टेक।।
कहो कसूमल साड़ी रँगावाँ कहो तो भगवां भेस।
कहो तो मोतियन मांग भरावां, करों छिटकावां केस।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, सुणज्यो बिड़द नरेस।।

(चलां=चल, वाही=उसी, पावां=पांव, कसूमल=कुसुम के रंग की लाल, छिटकावां=बिखरा दें, बिड़द=विरद,यश,
नरेश=नरेश,प्रियतम)
भक्ति की राह केवल बाह्य यात्रा नहीं, यह आत्मा की अनवरत पुकार है—जो अपने प्रियतम की ओर बढ़ने को आतुर है। जब यह प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब साधक के लिए कोई अन्य दिशा शेष नहीं रह जाती—सिर्फ उस दिव्य गंतव्य की ओर बढ़ने का संकल्प।

प्रेम की अभिव्यक्ति किसी बाहरी रूप में बंधी नहीं रहती। जब व्यक्ति इस मार्ग पर चलने की तैयारी करता है, तो यह केवल वस्त्र या आभूषणों का परिवर्तन नहीं, बल्कि भीतर की चेतना का भी विस्तार होता है। कुसुम की लालिमा हो या भगवा वस्त्र, मोतियों की मांग हो या खुले केश—यह सभी केवल उस आंतरिक अनुराग का प्रतीक हैं, जो संपूर्ण रूप से समर्पण की ओर बढ़ रहा है।

ईश्वर का स्मरण केवल निवेदन नहीं, बल्कि आत्मा की वह पुकार है, जो उस परम आनंद में विलीन होने की आकांक्षा रखती है। जब भक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचती है, तब वहाँ कोई संदेह नहीं रहता, कोई द्वंद्व नहीं होता—केवल प्रेम की अखंडता और समर्पण की पूर्णता बनी रहती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ साधक ईश्वर के चरणों में स्वयं को पूर्ण रूप से अर्पित कर देता है।
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