आज़ादी इलाही ख़ैर वो हरदम

आज़ादी इलाही ख़ैर वो हरदम नई बेदाद करते हैं

आज़ादी-इलाही ख़ैर! वो हरदम नई बेदाद करते हैं
इलाही ख़ैर! वो हरदम नई बेदाद करते हैं।
हमें तोहमत लगाते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।

कभी आज़ाद करते हैं, कभी बेदाद करते हैं।
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं।

असीराने-क़फ़स से काश, यह सैयाद कह देता,
रहो आज़ाद होकर, हम तुम्हें आज़ाद करते हैं।

रहा करता है अहले-ग़म को क्या-क्या इंतज़ार इसका,
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं।

यह कह-कहकर बसर की, उम्र हमने कै़दे-उल्फ़त में,
वो अब आज़ाद करते हैं, वो अब आज़ाद करते हैं।

सितम ऐसा नहीं देखा, जफ़ा ऐसी नहीं देखी,
वो चुप रहने को कहते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।

यह बात अच्छी नहीं होती, यह बात अच्छी नहीं करते,
हमें बेकस समझकर आप क्यों बरबाद करते हैं?

कोई बिस्मिल बनाता है, जो मक़तल में हमें ‘बिस्मिल’,
तो हम डरकर दबी आवाज़ से फ़रियाद करते हैं।




इस देशभक्ति गीत में स्वतंत्रता की तड़प और जुल्म के खिलाफ हृदय की पुकार का गहरा उदगार है। वतन की आजादी के लिए भक्त हर सितम सहता है, लेकिन उसे तोहमत का सामना करना पड़ता है। जैसे पंछी पिंजरे में आजादी की आस रखता है, वैसे ही वह सैयाद से आजाद होने की गुहार लगाता है।

हरदम नए जुल्म और बेदाद के बावजूद, प्रेम और याद में डूबा मन वतन को सौ बार सलाम करता है। दुखी हृदय को सुख की प्रतीक्षा है, जो उसे संघर्ष में और दृढ़ करती है। यह शिकायत भी है कि बेकस को बरबाद करने की बजाय, उसे आजादी का हक दिया जाए। मकतल में भी डरकर नहीं, बल्कि दबी आवाज में फरियाद करने का साहस यह दर्शाता है कि वतन का प्रेम आत्मा को अडिग रखता है। यह भाव प्रेरित करता है कि स्वतंत्रता के लिए हर कुर्बानी सार्थक है, जो गर्व और शांति की ओर ले जाती है।
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