एक छाड़ि पय को गहैं कबीर साहेब के दोहे

एक छाड़ि पय को गहैं कबीर साहेब के दोहे

एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 

जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 

उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 

तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 

तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 

ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 

आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 

जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 

कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 

सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 
1. एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे बछड़ा अपनी माँ का थन छोड़कर अन्य स्थान पर जाता है, वैसे ही साधु अपने अवगुणों को छोड़कर गुणों को अपनाते हैं। यही साधु की विशेषता है।

2. जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति बाहरी आचार-व्यवहार में एक जैसा रहता है और भीतर भी वही भाव रखता है, वही सच्चा साधु है। भीतर और बाहर का भेद नहीं होता।

3. उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे उड़गण (हंस) और सुधाकरा (मधुर रस) पानी में रहते हुए भी अपने गुणों को बनाए रखते हैं, वैसे ही साधु संसार में रहते हुए भी अपने आत्मज्ञान को नहीं खोते।

4. तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने तन में शीतलता और वाणी में मधुरता रखता है, वह सच्चा साधु है। ऐसा साधु काल के प्रभाव से परे होता है।

5. तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे आकाश का टूटना कोई नहीं सह सकता, वैसे ही साधु, सती, और सूर (संत) का जीवन एक अलौकिक खेल है, जिसे समझना आसान नहीं है।

6. ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ढोल, दमामा, गड़झड़ी, सहनाई, और तूर (संगीत वाद्य) एक बार बजने के बाद फिर से नहीं बजते, लेकिन साधु, सती, और सूर का जीवन ऐसा है कि वे बार-बार प्रकट होते हैं।

7. आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि आजकल के लोग मिलकर भी बिछड़ जाते हैं। वे अपने स्वार्थ के कारण एक-दूसरे से दूर होते हैं, और राम की शपथ भी नहीं लेते।

इन दोहों के माध्यम से कबीर दास जी ने साधना, आत्मज्ञान, और जीवन के सत्य को सरल और प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया है।
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