कबीर के दोहे सरल हिंदी अर्थों सहित

कबीर के दोहे सरल हिंदी अर्थों सहित

निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥

मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥

और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥

जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥

इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥

शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥

कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥

सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥

कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥

बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥

बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥
1. निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि निस्वार्थ भक्ति और स्वामी के प्रति प्रेम से ही विषयों का त्याग संभव है। यही साधुओं का मार्ग है।

2. मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति मान और अपमान की चिंता नहीं करता और दूसरों का सम्मान करता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

3. और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब मन में गुरु के चरणों का वास होता है, तब अन्य देवताओं की आवश्यकता नहीं रहती। वे स्वल्पाहार करते हुए तृष्णा को दूर रखते हैं।

4. जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो संसार की चाल साधु के अनुकूल नहीं है, वह ढोंग है। ऐसे व्यक्ति को साधु नहीं कहना चाहिए।

5. इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि इन्द्रियों और मन का नियंत्रण करके, हृदय को कोमल बनाना चाहिए। सदा शुद्ध आचार में रहकर, विचारों में सोना चाहिए।

6. शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि शीलवान व्यक्ति का ज्ञान दृढ़ होता है, उसका चित्त उदार होता है। लज्जा, निछलता, और कोमल हृदय उसकी विशेषताएं हैं।

7. कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कोई व्यक्ति भाव लेकर आता है, तो कोई अभाव लेकर आता है। साधु दोनों को पोषते हैं, वे भाव और अभाव की गिनती नहीं करते।

कबीर के इन दोहों में सच्चे संत के गुणों और उनके आदर्श जीवन का सुंदर चित्रण किया गया है। वे कहते हैं कि सच्चा साधु निर्लोभी और निःस्वार्थ होता है, जो संसार के विषयों और मोह-माया से परे रहता है। उसका प्रेम केवल ईश्वर से होता है, और वह सांसारिक इच्छाओं में नहीं उलझता।

सच्चा संत अपने मान-अपमान की चिंता नहीं करता, बल्कि वह दूसरों का सम्मान करता है। वह दूसरों को ज्ञान प्रदान करता है, बजाय अपने लिए कुछ मांगने के। उसका मन गुरु के चरणों में स्थिर रहता है, और वह संतुलित जीवन जीता है। उसकी तृष्णाएँ समाप्त हो जाती हैं, और वह सादगी और संतोष में जीवन व्यतीत करता है।

संत का आचरण कोमल और विनम्र होता है। उसका मन शांत रहता है और वह शुद्ध विचारों में मग्न रहता है। वह दिखावे या छल-कपट से दूर रहता है, और केवल सच्चाई को ही अपनाता है। उसकी संगति से जीवन में आध्यात्मिक उन्नति होती है, और उसके विचारों से समाज को दिशा मिलती है।

कबीर अंत में कहते हैं कि साधु की संगति कमल पत्र के समान होती है, जो जल में रहकर भी उससे प्रभावित नहीं होता। वह संसार में रहकर भी उसमें लिप्त नहीं होता। जैसे बहता पानी निर्मल रहता है, वैसे ही सच्चा संत अपने पवित्र स्वभाव से जीवन में शुभता लाता है। उसकी संगति से व्यक्ति अपने दोषों को त्यागकर आत्मिक शांति प्राप्त करता है। यह संदेश हर व्यक्ति को संतों की संगति में रहकर सच्चे ज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
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