कबीर के दोहे अर्थ और भावार्थ सहित
कबीर के दोहे अर्थ और भावार्थ सहित
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म।
अर्थ: सभी कर्म कर्म हैं, लेकिन भक्ति निहकर्म है। कबीर कहते हैं कि भ्रम को त्यागकर भक्ति करो।
इस दोहे में कबीर दास जी ने बताया है कि संसार के अन्य कर्मों से जीव बंधा होता है और उसका फल उसे भोगना पड़ता है, परंतु भक्ति ऐसा कर्म है जो भव-बंधनों से मुक्ति दिलाता है। इसलिए, भ्रम को त्यागकर सच्ची भक्ति का अभ्यास करना चाहिए।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म।
अर्थ: सभी कर्म कर्म हैं, लेकिन भक्ति निहकर्म है। कबीर कहते हैं कि भ्रम को त्यागकर भक्ति करो।
इस दोहे में कबीर दास जी ने बताया है कि संसार के अन्य कर्मों से जीव बंधा होता है और उसका फल उसे भोगना पड़ता है, परंतु भक्ति ऐसा कर्म है जो भव-बंधनों से मुक्ति दिलाता है। इसलिए, भ्रम को त्यागकर सच्ची भक्ति का अभ्यास करना चाहिए।
कबीर दास जी के इन दोहों में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के महत्व को सरलता से प्रस्तुत किया गया है।
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि संसारिक विषयों का त्याग ही सच्चा वैराग्य है, और सभी प्राणियों के प्रति समानता का व्यवहार ही सच्चा ज्ञान है। यही सच्ची भक्ति है, जो सभी जीवों के लिए सुखदायी है।
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय।
अर्थ: भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है, और संतों ने इसे अपनाया है। जो भक्ति के मार्ग पर नहीं चलते, वे संसार के बंधनों में फंसे रहते हैं और दुख भोगते हैं।
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि संसारिक विषयों का त्याग ही सच्चा वैराग्य है, और सभी प्राणियों के प्रति समानता का व्यवहार ही सच्चा ज्ञान है। यही सच्ची भक्ति है, जो सभी जीवों के लिए सुखदायी है।
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय।
अर्थ: भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है, और संतों ने इसे अपनाया है। जो भक्ति के मार्ग पर नहीं चलते, वे संसार के बंधनों में फंसे रहते हैं और दुख भोगते हैं।
कबीर के इन दोहों में भक्ति, वैराग्य, और अहंकार के त्याग का गहन संदेश दिया गया है। वे कहते हैं कि सभी कर्म सांसारिक होते हैं, लेकिन भक्ति ही वह कर्म है जो निश्छल और मुक्त करने वाला होता है। इसलिए व्यक्ति को भ्रम छोड़कर सच्ची भक्ति करनी चाहिए, जिससे वह आत्मिक शांति प्राप्त कर सके।
कबीरजी आगे बताते हैं कि विषयों का त्याग ही वैराग्य है और समभाव रखना ही सच्चा ज्ञान है। सच्ची भक्ति वही होती है, जो सभी जीवों के प्रति करुणा और प्रेम की भावना रखे। भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है, जिस पर संतगण चढ़ते हैं, लेकिन नीचे सांसारिक मोह रूपी बाधाएँ छिपी रहती हैं, जो व्यक्ति को गिराने का प्रयास करती हैं।
वे समझाते हैं कि लोग भक्ति का नाम तो लेते हैं, लेकिन उसकी गहराई को समझ नहीं पाते। पूर्ण भक्ति गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक ले जाती है। इसके साथ ही वे अहंकार के त्याग का महत्व बताते हैं—कोई भी व्यक्ति, चाहे वह राजा हो या धनवान, अंततः मृत्यु के अधीन है। ऊँचे महल, वैभव और संपत्ति सब नष्ट हो जाते हैं, और काल सबको समान रूप से मिटा देता है।
कबीरजी यह भी कहते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, जैसे टेसू का फूल कुछ दिनों तक खिलने के बाद सूख जाता है। काल किसी को नहीं छोड़ता, और जब वह पकड़ लेता है, तो व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि उसका अंत कितना समीप है। इसलिए जीवन को व्यर्थ अहंकार में नहीं बिताना चाहिए, बल्कि सच्चे ज्ञान और भक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए।
कबीरजी आगे बताते हैं कि विषयों का त्याग ही वैराग्य है और समभाव रखना ही सच्चा ज्ञान है। सच्ची भक्ति वही होती है, जो सभी जीवों के प्रति करुणा और प्रेम की भावना रखे। भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है, जिस पर संतगण चढ़ते हैं, लेकिन नीचे सांसारिक मोह रूपी बाधाएँ छिपी रहती हैं, जो व्यक्ति को गिराने का प्रयास करती हैं।
वे समझाते हैं कि लोग भक्ति का नाम तो लेते हैं, लेकिन उसकी गहराई को समझ नहीं पाते। पूर्ण भक्ति गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक ले जाती है। इसके साथ ही वे अहंकार के त्याग का महत्व बताते हैं—कोई भी व्यक्ति, चाहे वह राजा हो या धनवान, अंततः मृत्यु के अधीन है। ऊँचे महल, वैभव और संपत्ति सब नष्ट हो जाते हैं, और काल सबको समान रूप से मिटा देता है।
कबीरजी यह भी कहते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, जैसे टेसू का फूल कुछ दिनों तक खिलने के बाद सूख जाता है। काल किसी को नहीं छोड़ता, और जब वह पकड़ लेता है, तो व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि उसका अंत कितना समीप है। इसलिए जीवन को व्यर्थ अहंकार में नहीं बिताना चाहिए, बल्कि सच्चे ज्ञान और भक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए।