श्री विमलनाथ चालीसा जैन भजन

श्री विमलनाथ चालीसा

सिद्ध अनन्तानन्त नमन कर, सरस्वती को मन में ध्याय ।।
विमलप्रभु क्री विमल भक्ति कर, चरण कमल में शीश नवाय ।।
जय श्री विमलनाथ विमलेश, आठों कर्म किए नि:शेष ।।
कृतवर्मा के राजदुलारे, रानी जयश्यामा के प्यारे ।।
मंगलीक शुभ सपने सारे, जगजननी ने देखे न्यारे ।।
शुक्ल चतुर्थी माघ मास की, जन्म जयन्ती विमलनाथ की ।।
जन्योत्सव देवों ने मनाया, विमलप्रभु शुभ नाम धराया ।।
मेरु पर अभिषेक कराया, गन्धोंदक श्रद्धा से लगाया ।।
वस्त्राभूषण दिव्य पहनाकर, मात-पिता को सौंपा आकर ।।
साठ लाख वर्षायु प्रभु की, अवगाहना थी साठ धनुष की ।।
कंचन जैसी छवि प्रभु- तन की, महिमा कैसे गाऊँ मैं उनकी ।।
बचपन बीता, यौवन आया, पिता ने राजतिलक करवाया ।।
चयन किया सुन्दर वधुओं का, आयोजन किया शुभ विवाह का ।।
एक दिन देखी ओस घास पर, हिमकण देखें नयन प्रीतिभर ।।
हुआ संसर्ग सूर्य रश्मि से, लुप्त हुए सब मोती जैसे ।।
हो विश्वास प्रभु को कैसे, खड़े रहे वे चित्रलिखित से ।।
“क्षणभंगुर है ये संसार, एक धर्म ही है बस सार ।।
वैराग्य हृदय में समाया, छोडे क्रोध -मान और माया ।।
घर पहुँचे अनमने से होकर, राजपाट निज सुत को देकर ।।
देवीमई शिविका पर चढ़कर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।।
माघ मास-चतुर्थी कारी, “नम: सिद्ध” कह दीक्षाधारी ।।
रचना समोशरण हितकार, दिव्य देशना हुई सुरवकार ।।
उपशम करके मिथ्यात्व का, अनुभव करलो निज आत्म का ।।
मिथ्यात्व का होय निवारण, मिटे संसार भ्रमण का कारणा ।।
बिन सम्यक्तव के जप-तप-पूजन, विष्फल हैँ सारे व्रत- अर्चन ।।
विषफल हैं ये विषयभोग सब, इनको त्यागो हेय जान अब ।।
द्रव्य- भाव्-नो कमोदि से, भिन्न हैं आत्म देव सभी से ।।
निश्चय करके हे निज आतम का, ध्यान करो तुम परमात्म का ।।
ऐसी प्यारी हित की वाणी, सुनकर सुखी हुए सब प्राणी ।।
दूर-दूर तक हुआ विहार, किया सभी ने आत्मोद्धारा ।।
‘मन्दर’ आदि पचपन गणधर, अड़सठ सहस दिगम्बर मुनिवर ।।
उम्र रही जब तीस दिनों क, जा पहुँचे सम्मेद शिखर जी ।।
हुआ बाह्य वैभव परिहार, शेष कर्म बन्धन निरवार ।।
आवागमन का कर संहार, प्रभु ने पाया मोक्षागारा ।।
षष्ठी कृष्णा मास आसाढ़, देव करें जिनभवित प्रगाढ़ ।।
सुबीर कूट पूजें मन लाय, निर्वाणोत्सव को’ हर्षाय ।।
जो भवि विमलप्रभु को ध्यावें। वे सब मन वांछित फल पावें ।।
‘अरुणा’ करती विमल-स्तवन, ढीले हो जावें भव-बन्धन ।।
जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्री विमलप्रभु नमः


सुन्दर भजन में श्री विमलनाथ भगवान के विमल गुणों की भक्ति और उनके चरण कमलों में श्रद्धापूर्वक नमन का भाव अभिव्यक्त होता है। कर्मों से मुक्ति और आंतरिक शुद्धि का मार्ग प्रशस्त करने वाले विमलनाथ भगवान, राजा कृतवर्मा और रानी जयश्यामा के पुत्र थे। रानी ने उनके जन्म से पहले अनेक मंगलकारी स्वप्न देखे, जो उनके दिव्य स्वरूप की ओर संकेत करते हैं।

माघ मास की शुक्ल चतुर्थी को उनकी जन्म जयंती देवताओं द्वारा मनाई जाती है, जहाँ उनका विमलनाथ नामकरण होता है। इन्द्र मेरु पर्वत पर उनका अभिषेक करते हैं, दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाकर उन्हें माता-पिता को सौंपते हैं। साठ लाख वर्ष की आयु और साठ धनुष ऊँचाई वाले विमलनाथ भगवान का शरीर कंचन के समान देदीप्यमान है।

बचपन और यौवन के बाद पिता उन्हें राजतिलक करवाते हैं, और सुंदर वधुओं का चयन कर उनके विवाह का आयोजन करते हैं। लेकिन, एक दिन घास पर जमे ओस की बूँदों को सूर्य की किरणों से लुप्त होते देखकर उन्हें संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान होता है। इससे उनके हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता है, और वे क्रोध, मान और माया को त्याग देते हैं।

वे अनमने से होकर घर लौटते हैं, पुत्र को राजपाट सौंपते हैं, और देवीमई शिविका पर चढ़कर सहेतुक वन में जिनराज बन जाते हैं। माघ मास की चतुर्थी को वे "नम: सिद्ध" कहकर दीक्षा धारण करते हैं, जिससे उनके तपस्वी जीवन की शुरुआत होती है।

इसके बाद, समवशरण की रचना होती है, जहाँ वे हितकारी दिव्य उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि मिथ्यात्व का निवारण करके ही संसार के आवागमन के चक्र को समाप्त किया जा सकता है। बिना सम्यक्तव के जप, तप और पूजन व्यर्थ हैं, और विषय भोग विषफल के समान हैं, जिन्हें त्यागना आवश्यक है। द्रव्य, भाव और कर्मों से भिन्न आत्मा का ध्यान करने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

उनकी वाणी सुनकर प्राणी सुखी होते हैं, और दूर-दूर तक विहार करके वे सभी का उद्धार करते हैं। मन्दर आदि पचपन गणधर और अड़सठ हजार दिगम्बर मुनि उनके संघ में शामिल होते हैं। अपनी आयु के अंतिम तीस दिनों में वे सम्मेद शिखर जी पहुँचते हैं, जहाँ वे बाह्य वैभव का त्याग करके शेष कर्म बंधनों को भी नष्ट कर देते हैं।
Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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