यशोदा मैया बाल-गोविन्द को गोद में लेकर बार-बार उनका मुख निरख रही है। आनन्द की घनमूर्ति (स्वंय) श्रीकृष्ण प्रतिक्षण (अधिकाधिक) हर्षित हो रहे हैं तथा उनका शरीर पुलकित हो रहा है।। 1 ।। (माता को यों आनन्दमग्न देख) यादवराय श्रीकृष्ण तोतली वाणी में माँ से पूछते हैं– ’(मैया!) तुझको जिस कारण से अत्यन्त सुख हो रहा है वह मुझको समझाकर कह’ ।। 2 ।।
(माता बोली- लल्ला!) तेरा मुखकमल देखते ही मन में आनन्द होता है। उस आनन्द का वर्णन कौन करे जीभ मौन हो जाती है। उस (अलौकिक) आनन्द को कोई-कोई (वात्सल्य-प्रेमरस के भावुकजन) ही जानते हैं ।। 3 ।। (अच्छा लल्ला! अपना) सुन्दर मुखड़ा मुझे (बार-बार) दिखाता रह, मेरी
(उसे देखने की) बड़ी इच्छा है। मेरे समान पुण्यपुञ्ज कोई नहीं है, (क्योंकि) तेरे समान कोई बालक (जगत में) नहीं है। (अर्थात मेरे समान पुण्यात्मा दूसरा कौन है, जिसको तेरे समान अनुपम बालक पुत्ररूप में मिला हो) ।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं- प्रेमवश हो मेरे प्रभु ने मनुष्यरूप धारण किया है और व्रजवासियों का हित करने के लिये (सुख पहुँचाने के लिये) बालक्रीड़ारूप लीला-रस के आवेश में मग्न हैं ।। 5 ।।
’छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू
दै री, मैया!’ ’लै कन्हैया!’ ’सो कब?’ ’अबहिं तात।।’
’सिगरियै हौंहीं खैहौं, बलदाऊ को न दैहौं।।’
’सो क्यों?’ ’भटू, तेरो कहा’ कहि इत उत जात ।। 1 ।।
बाल बोलि डहकि बिरावत, चरित लखि,
गोपि गन महरि मुदित पुलकित गात।
नूपुर की धुनि किंकिनि को कलरव सुनि,
कूदि कूदि किलकि किलकि ठाढ़े ठाढ़े खात ।। 2 ।।
तनियाँ ललित कटि, बिचित्र टेपारो सीस,
मुनि मन हरत बचन कहै तोतरात।
तुलसी निरखि हरषत बरषत फूल,
भूरिभागी ब्रजबासी बिबुध सिद्ध सिहात ।। 3 ।।
(श्रीकृष्ण अपनी माता यशोदा से कहते हैं-) मैया री! तू मुझे छोटी किंतु मोटी, चिकनी, मीस्सी रोटी घी लगाकर दे।' (मैया बोली-)' कन्हैया! ले।' (पुत्र ने पूछा–) 'उसे कब देगी ?'(माता बोली-)' बेटा! अभी (देती हूँ)' (श्रीकृष्ण ने कहा– 'तो मैया!) पूरी रोटी मैं ही खाऊँगा, बलदाऊ भैया को (उसमें से हिस्सा) नहीं दूँगा।' (यशोदा ने पूछा-) 'ऐसा क्यों?' (श्रीकृष्ण बोले-)'अरी भली औरत, (इसमें) तेरा क्या (बिगड़ता है)? मैं अकेला ही खाऊँगा)' और यों कहकर वे इधर.उधर चले जाते हैं ।। 1 ।। (और-और) बालकों को बुलाकर उन्हें रोटी दिखा-दिखाकर, किंतु उनके माँगने पर न देकर चिढ़ाते हैं। (उनके इन) चरित्रों को देखकर गोपियाँ और
यशोदा मैया मोद में भर जाती हैं, उनके शरीर रोमाञित हो जाते हैं। श्रीकृष्ण अपने ही नूपुरों की ध्वनि और करधनी का मधुर शब्द सुनकर कूद-कूद तथा किलक-किलककर खड़े-खड़े ही रोटी खा रहें हैं ।। 2 ।। उनकी कमर में सुन्दर कछनी है, सिर पर विचित्र मुकुटाकार चौगोसिया टोपी है; जब तुतलाकर बोलते हैं(तब तो) वे मुनियों का (भी) मन हर लेते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि देवता तथा सिद्धगण यह (देख) देखकर हर्षित होते, फूल बरसाते और महान भाग्यशाली व्रजवासियों से ईर्ष्या करते हैं। (मन ही मन) कहते हैं कि हमारे भाग्य इन व्रजवासियों-जैसे नहीं हैं, तभी तो हम इस सुख से वञ्चित हैं।) ।। 3 ।।
तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेरें।
जैसी हाल करी यहि ढोटा छोटे निपट अनेरें ।। 1 ।।
गोरस हानि सहौं, न कहौं कछु, यहि ब्रजबास बसेरें।
दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै? घर निधि काहू केरें ।। 2 ।।
किएँ निहोरो हँसत, खिझे तें डाँटत नयन तरेरें।
अबहीं तें ये सिखे कहाँ धौं चरित ललित सुत तेरें ।। 3 ।।
बैठो सकुचि साधु भयो चाहत मातु बदन तन हेरें।
तुलसीदास प्रभु कहौं ते बातैं जे कहि भजे सबेरें ।। 4।।
(ग्वालिनी यशोदा जी को उलाहना देती हुई कहती हैं-) तुम्हें श्यामसुन्दर की शपथ है, (तुम्हारे) इस निपट अन्यायी छोटे-से लड़ैते ने (मेरे घर की) जैसी दुर्दशा की है उसे मेरे घर आकर देखो तो सही ।। 1 ।। दूध-दही-माखन की हानि तो सह लेती हूँ, कुछ (भी) नहीं कहती क्योंकि इसी व्रज की बस्ती में रहना है। पर नित्य (नये) बर्तन कौन खरीदे; क्या किसी के घर में धन का खजाना भरा है? ।। 2 ।। निहोरा (अनुनय–विनय) करने पर हँसने लगता है, खीझने से आँखे
तरेर कर डाँटता है। जाने अभी से तुम्हारे इस ललित लाल ने ये सब चरित्र कहाँ से सीख लिये हैं? ।। 3 ।। इस समय माँ के मुँह की ओर निहारता हुआ ऐसा सकुचाकर, (सिमटकर स्थिर होकर) बैठा है; मानो (सबकी दृष्टि में) साधु सजना चाहता है। तुलसीदास जी के शब्दों में ग्वालिनी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि प्रभु जी! सबेरे जो कुछ कहकर आप भाग आये थे, क्या उन बातों को मैं कह दूँ?' ।। 4 ।।
मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं।
मैया! इन्हहि बानि पर घर की, नाना जुगुति बनावहिं ।। 1 ।।
इन्ह के लिएँ खेलिबो छाँड्यो तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि बोरि कर गोरस, देन उरहनो आवहिं ।। 2 ।।
कबहुँक बाल रोवाइ पानि गहि, मिस करि उठि–उठि धावहिं।
करहिं आपु, सिर धरहिं आन के, बचन बिरंचि हरावहिं ।। 3 ।।
मेरी टेव बूझि हलधर सों, संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को, ते सिसु मोहि न भावहिं ।। 4 ।।
सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बाल गोपाल केलि कल कीरति तुलसीदास मुनि[1] गावहिं ।। 5 ।।
(श्रीकृष्ण कहने लगे-) मैया! ये मुझ पर झूठ–मूठ दोष लगाती हैं। इन्हें तो पराये घर भटकने की टेव पड़ गयी है, इसी से ये (अपने यहाँ आने के लिये) तरह-तरह की युक्ति रचा करती हैं ।। 1 ।। इनके लिये मैंने खेलना तक छोड़ दिया, तब भी इनसे बच नहीं पाते। ये (स्वंय ही अपने) बर्तनों को फोड़कर, दही-दूध में हाथ डुबाकर उलाहना देने चली आती हैं ।। 2 ।। कभी तो बालकों को रूलाकर, उनके हाथ पकड़कर बहाना बनाती हुई उठ-उठकर दौड़ी आती हैं। करती तो हैं सब कुछ आप और दोष मढ़ती हैं दूसरे के सिर! बातों में तो ये ब्रह्मा जी को भी मात कर देती हैं (ऐसी चतुर हैं) ।। 3 ।। मेरी कैसी आदत है, यह तो (मैया! तू) हलधर भैया से पूछ ले, निरन्तर वे मुझे अपने साथ खेलाते हैं। मुझे तो वे बालक अच्छे ही नहीं लगते जो दूसरे के प्रति अन्याय करते हैं। फिर भला, मैं स्वयं कैसे किसी के साथ अन्याय करने जाता? ।। 4 ।। श्रीकृष्ण की वचन-चातुरी सुन-सुनकर ग्वालिनें हँस–हँसकर अपना मुँह छिपा लेती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि बालगोपाल (यशोदानन्दन) के सुन्दर लीला यश का मुनिगण गान करते हैं ।। 5 ।।
कबहुँ न जात पराए धामहिं ।
खेलत ही देखौं निज आँगन सदा सहित बलरामहिं ।। 1 ।।
मेरे कहाँ थाकु गोरस को, नव निधि मन्दिर या महिं।
ठाढ़ी[1] ग्वालि ओरहना के मिस आइ बकहिं बेकामहिं ।। 2 ।।
हौं बलि जाउँ जाहु कितहूँ जनिए, मातु सिखावति स्यामहिं।
बिनु कारन हठि दोष लगावति तात गएँ गृह ता महिं ।। 3 ।।
हरि मुख निरखि, परूष बानी सुनि, अधिक–अधिक अभिरामहिं।
तुलसीदास प्रभु देख्योइ चाहति श्रीउर ललित ललामहिं ।। 4 ।।
(यशोदा मैया ग्वालिनों से कहती हैं- मेरा कन्हैया तो) कभी दूसरे के घर जाता ही नहीं। मैं तो इसको सदा बलराम के साथ अपने आँगन में ही खेलते देखती हूँ ।। 1 ।। मेरे यहाँ दूध-दही-माखन की थाह (सीमा) थोड़े ही है (जो यह दूसरे घर जाय); मेरे इस घर में नवों निधियाँ भरी हैं। ये ग्वालिनें बिना ही प्रयोजन उलाहना देने के बहाने आकर यहाँ खड़ी बक रही हैं ।। 2 ।। (फिर) माता अपने श्यामसुन्दर को सीख देती है- (मेरे लाल!) मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम कहीं मत
जाया करो। बेटा! (देखो,) इनके घर जाने से ये रुष्ट होती हैं और बिना ही कारण जबरदस्ती तुम पर दोष लगा रही हैं ।। 3 ।। ग्वालिनें श्रीहरि के मुख को निरखकर और (यशोदा जी के) कठोर वचन सुनकर अधिक-अधिक सुख पा रही हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे तो श्रीलक्ष्मीजी के हदय के इस ललित रत्न प्रभु श्रीकृष्ण को देखते ही रहना चाहती हैं। (इसीलिये तो वे उलाहने के बहाने आया करती हैं।) ।। 4 ।।
अब सब साँची कान्ह तिहारी।
जो हम तजे, पाइ गौं मोहन गृह आए दै गारी।। 1 ।।
सुसुकि सभीत सकुचि रूखे मुख बातें सकल सँवारी।
साधु जानि हँसि हदय लगाए, परम प्रीति महतारी ।। 2।।
कोटि जतन करि सपथ कहैं हम, मानै कौन हमारी।
तुमहि बिलोकि, आन को ऐसी क्यों कहिहैं बर नारी ।। 3 ।।
जैसे हौ तैसे सुखदायक ब्रजनायक बलिहारी।
तुलसीदास प्रभु मुख छबि निरखत मन सब जुगुति बिसारी ।। 4 ।।
(ग्वालिनी व्यंगभरी वाणी में श्रीकृष्ण से कहती हैं-) कन्हैया! अब तो तुम्हारी सभी बातें सत्य हैं। मोहन! हमने जब तुम्हें छोड़ दिया तब मौका पाकर तुम गाली देते हुए घर भाग आये ।। 1 ।। और अब सिसकियाँ भरकर, भयभीत एवं लज्जित हो तथा रूखा मुँह बनाकर (माता के सामने) सारी बातें सँवार-बना लीं। माता यशोदा ने भी तुम्हें साधु समझकर परम स्नेह से हँसकर हृदय से लगा लिया ।। 2 ।। अब तो हम करोड़ो युक्तियाँ का आश्रय लेकर शपथपूर्वक भी कहें तो भी हमारी कौन मानेगा? तुम्हारी इस (बनावटी साधु) सूरत को देखकर क्यों कोई भली स्त्री (तुम्हारी बात न मानकर) दूसरे की तरह कहेगी ।। 3 ।। व्रजनायक! मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ। तुम जैसे हो, वैसे ही सुख देने वाले हो। तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु की मुख-छवि को निरखकर ग्वालिनी को मन की सारी युक्तियाँ भूल गयीं।। 4 ।।