कबीर साहेब की साखी हिंदी अर्थ सहित
गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा खेलै।
बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं॥टेक॥
चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा।
ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा॥
षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ।
काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ॥
गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती।
कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी॥
गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा खेलै: कबीर जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण के बांसुरी की ध्वनि से उनका मन आनंदित होता है, जैसे बांसुरी के सुरों में उनका मन रम जाता है।
बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं: वह अपने शरीर को बगीचे के रूप में देखते हैं, जिसमें अनगिनत मृग (जीव) हैं, और सभी जीवों के साथ मिलकर परमात्मा की रचना का आनंद लेते हैं।
चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा: उनका चित्त एक नाव के समान है, जिसे पवन (प्राण) की सहायता से सहजता से परमात्मा की ओर बांध लिया गया है।
ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा: उनके ध्यान, योग, कर्म और ज्ञान सभी एक साथ मिलकर परमात्मा की उपासना में लगे हुए हैं।
षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ: उन्होंने अपने शरीर के छह चक्रों (पद्म) को जागृत किया है, जिससे अज्ञान का अंधकार दूर हो गया है।
काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ: उन्होंने काम, क्रोध, लोभ और मोह जैसे विकारों को अपने नियंत्रण में किया है।
गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती: उन्होंने अपने भीतर के आकाश (गगन मंडल) में समय की अवधियों (दिन और रात) को रोक लिया है, जिससे समय की सीमा समाप्त हो गई है।
कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी: कबीर जी कहते हैं कि उन्होंने संसार के सभी बिछड़े हुए साथियों को छोड़ दिया है, और अब वे परमात्मा के साथ एकात्मता में लीन हैं।