कबीर साहेब की साखी अर्थ सहित
कबीर साहेब की साखी जानिये अर्थ सहित
साधन कंचू हरि न उतारै, अनभै ह्नै तौ अर्थ बिचारै॥टेक॥
बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा।
चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा।
पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया।
कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥
निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई।
कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥
बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा।
चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा।
पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया।
कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥
निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई।
कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥
इस पद में कबीर जी साधना की कठिनाई और उसके परिणामों पर प्रकाश डालते हैं। वह कहते हैं कि साधना के बिना, केवल भक्ति के विचार से, कोई भी व्यक्ति भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता। साधना के लिए, जैसे रेशम के धागे को रंगने में समय लगता है, वैसे ही भगवान की प्राप्ति के लिए समय और प्रयास की आवश्यकता होती है। वह पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) को छोड़कर, हीरे-मोती की तरह मूल्यवान साधना में लीन रहते हैं। कबीर जी कहते हैं कि बिना साधना के, कोई भी व्यक्ति मृत्यु के समय भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता। अंत में, वह गुरु की कृपा से सहज अवस्था में रहने की बात करते हैं।
