श्री अरहनाथ चालीसा लिरिक्स Arahnath Chalisa Lyrics
भगवान श्री अरहनाथ जी जैन धर्म के 18 तीर्थंकर थे। भगवान श्री अरहनाथजी का जन्म मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को हस्तिनापुर में हुआ था। भगवान अरहनाथ जी के पिता का नाम राजा सुदर्शन और माता का नाम मित्र सेना था। भगवान अरहनाथ जी की देह का रंग स्वर्ण के समान था। भगवान अरहनाथ जी का प्रतीक चिन्ह मछली है। श्री अरहनाथ जी ने दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 3 वर्ष तक कठोर तप किया। कठोर तप करने के बाद कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को आम के वृक्ष के नीचे हस्तिनापुर में अरहनाथ जी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान श्री अरहनाथजी ने मार्गशीर्ष माह की दशमी तिथि को सम्मेद शिखर पर 1000 साधुओं के साथ निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान श्री अरहनाथजी को दीक्षा प्राप्त करने के साथ ही मनःपर्यवज्ञान का लाभ भी प्राप्त हुआ था। उसके अगले दिन राजपुर नरेश अपराजिता के यहां उनका प्रथम पारणा हुआ। भगवान श्री अरहनाथ जी ने विशाल क्षेत्र में विचरण करते हुए कई प्रकार के परिषदों को क्षमा करने का और समानता से रहने का संदेश दिया। भगवान अरहनाथ जी स्वयं निद्रा और प्रमोद से दूर रहकर ध्यान में लीन रहे। उन्होंने बताया कि अरिहंत 14 आत्मिक दोषों से मुक्त होते हैं। उन्होंने निम्न आत्मिक दोष बतायें हैं, जिनसे अरिहंत मुक्त होते हैं-
1. ज्ञानावरण कर्मजन्य अज्ञानदोष
2. दर्शनावरण कर्मजन्य निद्रादोष
3. मोहकर्मजन्य मिथ्यात्व दोष
4. अविरति दोष
5. राग
6. द्वेष
7. हास्य
8. रति
9. अरतिखेद
10. भय
11. शोकचिन्ता
12. दुर्गेच्छा
13. काम
14. दानांतराय
2. दर्शनावरण कर्मजन्य निद्रादोष
3. मोहकर्मजन्य मिथ्यात्व दोष
4. अविरति दोष
5. राग
6. द्वेष
7. हास्य
8. रति
9. अरतिखेद
10. भय
11. शोकचिन्ता
12. दुर्गेच्छा
13. काम
14. दानांतराय
भगवान श्री अरहनाथ चालीसा का पाठ करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है। उन्होंने बताया है की बंधन ही सभी दुखों का कारण है। त्याग और सत्य सबसे बड़ा धर्म है। जो व्यक्ति त्याग करता है, वह भगवान के समान है। त्याग करने से सभी दुख-दर्द दूर होते हैं। भगवान श्री अरहनाथ चालीसा पाठ करने से आध्यात्मिक विकास होता है, मन को शांति मिलती है और त्याग की भावना विकसित होती है।
अरहनाथ चालीसा लिरिक्स इन हिंदी Arahnath Chalisa Lyrics in Hindi
श्री अरहनाथ जिनेन्द्र गुणाकर, ज्ञान-दरस-सुरव-बल ।कल्पवृक्ष सम सुख के सागर, पार हुए निज आत्म ध्याकर।
अरहनाथ नाथ वसु अरि के नाशक, हुए हस्तिनापुर के शासक।
माँ मित्रसेना पिता सुर्दशन, चक्रवर्ती बन किया दिग्दर्शन।
सहस चौरासी आयु प्रभु की, अवगाहना थी तीस धनुष की।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत, रोग शोक थे तुमसे भीत।
ब्याह हुआ जब प्रिय कुमार का, स्वप्न हुआ साकार पिता का।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का, हुआ अभ्युदय चक्र रत्न का।
एक दिन देखा शरद ऋतु में, मेघ विलीन हुए क्षण भर में
उदित हुआ वैराग्य हृदय में, तौकान्तिक सुर आए पल में।
'अरविन्द' पुत्र को देकर राज, गए सहेतुक वन जिनराज।
मंगसिर की दशमी उजियारी, परम दिगम्बर टीक्षाधारी।
पंचमुष्टि उखाड़े केश, तन से ममन्व रहा नहीं दलेश।
नगर चक्रपुर गए पारण हित, पढ़गाहें भूपति अपराजित।
प्रासुक शुद्धाहार कराये, पंचाश्चर्य देव कराये।
कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहे आत्म चिन्तन में।
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराज्ञे आम्र वृक्ष- तल।
अन्तर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई।
देव करें उत्सव अति भव्य, समोशरण को रचना दिव्य।
सोलह वर्ष का मौनभंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर।
चौदह गुणस्थान बताये, मोह-काय-योग दर्शाये।
सत्तावन आश्रव बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये।
संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर- नारी, दीक्षा व्रत धरि बहु भारी।
कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्द्ध लक्ष थे सकल मुनीश।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूर-दूर तक हुआ विहार।
एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनिसंग गए सम्मेद।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन।
नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव-चक्री-जिनदेव।
जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धर्म समीचीन।
प्राणी मात्र का जैन धर्म है, जैन धर्म ही परम धर्म है।
पंचेन्द्रियों को जीतें जो नर, जिनेन्द्रिय वे वनते जिनवर।
त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग में ही सब सुख हों भाई।
त्याग कर सकें केवल मानव, हैं सक्षम सब देव और मानव।
हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बन्धन में पीडा मन लाई।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घातिया
जिनके चरणों में धरें, शीश सभी नरनाथ।
हम सब पूजे उन्हें, कृपा करें अरहनाथ।
श्री अरहनाथ चालीसा हिंदी लिरिक्स Shri Arahnath Chalisa Hindi Lyrics
दोहाअरहनाथ भगवान हैं, तीनलोक के नाथ।
ध्यानचक्र से मृत्यु को, किया पराजित आप।१।।
हस्तिनागपुर तीर्थ पर, हुए चार कल्याण।
गर्भ-जन्म-तप और है, चौथा केवलज्ञान।।२।।
अरहनाथ तीर्थेश भी, त्रयपदवीयुत नाथ।
तीर्थंकर-चक्री तथा कामदेव जगमान्य।।३।।
इनके ही गुणगान में, यह चालीसा पाठ।
लिखने की इच्छा हुई, कृपा करो श्रुतमात।।४।।
चौपाई
अरहनाथ तीर्थंकर तुमने, अरि को नष्ट किया तप बल से।।१।।
अरि कहते हैं कर्मशत्रु को, प्रभु ने नाशा सब कर्मों को।।२।।
हस्तिनागपुर नगरी उत्तम, इन्द्रपुरी लगती सुन्दरतम।।३।।
पिता सुदर्शन धन्य कहाते, देवों द्वारा पूजा पाते।।४।।
उनकी रानी प्रभु की माता, नाम मित्रसेना विख्याता।।५।।
फाल्गुन बदि तृतिया तिथि मंगल, हुआ प्रभू का गर्भकल्याणक।।६।।
नौ महिने के बाद मात ने, मगसिर शुक्ला चतुर्दशी में।।७।।
पुत्ररत्न उत्पन्न किया था, जन-जन को आनन्द हुआ था।।८।।
आयु चौरासी सहस वर्ष की, ऊँचाई थी तीस धनुष की।।९।।
वर्ण आपका स्वर्ण सदृश था, देख स्वर्ण होता लज्जित था।।१०।।
अट्ठारवें तीर्थंकर तुम हो, चौदहवें तुम कामदेव हो।।११।।
सप्तम चक्रवर्ति भी स्वामी, तीन पदों से जग में नामी।।१२।।
कहते हैं तीर्थंकर जैसा, पुण्य किसी का नहिं हो सकता।।१३।।
चक्रवर्ति के जैसा वैभव, नहीं किसी के पास सुलभ है।।१४।।
सुन्दरता भी कामदेव सी, नहीं किसी में दिख सकती है।।१५।।
पर ये तीनों दुर्लभ पदवी, अरहनाथ में एक साथ थीं।।१६।।
एक दिवस श्री अरहनाथ जी, सुख से बैठे महल की छत पर।।१७।।
तभी शरद ऋतु के मेघों को, नष्ट हुआ देखा था प्रभु ने।।१८।।
तत्क्षण प्रभु के मन-उपवन में, समा गया वैराग्य हृदय में।।१९।।
मगसिर शुक्ला दशमी तिथि थी, जब प्रभुवर ने दीक्षा ली थी।।२०।।
पहुँचे प्रभु जी नगर चक्रपुर, वहाँ के राजा थे अपराजित।।२१।।
दिया प्रथम आहार उन्होंने, पंचाश्चर्य किए देवों ने।।२२।।
दीक्षा के पश्चात् प्रभू ने, सोलह वर्ष किया तप वन में।।२३।।
गए पुन: वे दीक्षावन में, तिष्ठे आम्रवृक्ष के नीचे।।२४।।
चार घातिया कर्म नशे थे, अनंत चतुष्टय प्रगट हुए थे।।२५।।
समवसरण के द्वारा प्रभु ने, धर्मवृष्टि की पूरे जग में।।२६।।
पुन: आयु जब इक महिने की, शेष रही तब अरहनाथ जी।।२७।।
गिरि सम्मेदशिखर पर पहुँचे, वहाँ शेष सब कर्म नशे थे।।२८।।
चैत्र कृष्ण मावस तिथि प्यारी, प्रभु जी हो गए शिवभरतारी।।२९।।
तनविरहित अशरीरी हो गये, अष्टकर्म से रहित हो गए।।३०।
चिन्ह आपका मत्स्य सुशोभे, प्रभु का सुमिरन सब दुख खोवे।।३१।।
प्रभो! आपमें गुण अनन्त हैं, कुछ ही गुण का यहँ वर्णन है।।३२।।
नाथ! आपका रूप निराला, दर्शक को सुख करने वाला।।३३।।
नाथ! आपकी वाणी ऐसी, मिथ्यामति को सम्यक् करती।।३४।।
नाथ! आपका हास्य मंद है, देख के मिलता सुख अनन्त है।।३५।।
नाथ! आपका तेज है ऐसा, सूरज को भी लज्जित करता।।३६।।
नाथ! आपकी यशकीर्ती तो, फीकी करती कोटि चन्द्र को।।३७।।
नाथ! आपकी शांति देखकर, बैर छोड़ते व्रूâर जीवगण।।३८।।
इच्छा तो है खूब कहूँ मैं, पर शब्दों को लाऊँ कहाँ से ?।।३९।।
मिलेगा जब भण्डार शब्द का, करेंगे हम गुणगान ‘‘सारिका’’।।४०।।
यह अरहनाथ का चालीसा, चालिस दिन तक पढ़ना भव्यों!।
यदि समय मिले तो चार नहीं, चालीसहिं बार पढ़ो इसको।।
यह निश्चित है तब इक दिन कर्म-अरी का नाश करोगे तुम।
क्योंकी प्रभु भक्ती करने से, कार्यों की सिद्धी होती सब।।१।।
इक दिव्यशक्ति गणिनी माताश्री ज्ञानमती जी ख्यात यहाँ।
उनकी शिष्या चन्दनामती जी, आर्षमार्ग संरक्षिका हैं।।
यह उनकी दिव्यप्रेरणा एवं आशिर्वाद का ही है फल।
इसको पढ़कर तुम अपना दुर्लभ मानव जीवन करो सफल।।२।।
Shri Arah Nath Aarti Hindi Lyrics
अरहनाथ तीर्थंकर प्रभु की, आरतिया मनहारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
हस्तिनागपुर की पावन भू, जहाँ प्रभुवर ने जन्म लिया।
पिता सुदर्शन मात मित्रसेना का जीवन धन्य किया।।
सुर नर वन्दित उन प्रभुवर को, नित प्रति धोक हमारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
तीर्थंकर, चक्री अरु कामदेव पदवी के धारी हो।
स्वर्ण वर्ण आभायुत जिनवर, काश्यप कुल अवतारी हो।।
मनभावन है रूप तिहारा, निरख-निरख बलिहारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
फाल्गुन वदि तृतिया को गर्भकल्याणक सभी मनाते हैं।
मगशिर सुदि चौदस की जन्मकल्याणक तिथि को ध्याते हैं।।
मगशिर सित दशमी दीक्षा ली, मुनी श्रेष्ठ पदधारी हैं,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
कार्तिक सुदि बारस में, केवलज्ञान उदित हो आया था।
हस्तिनागपुर में ही इन्द्र ने, समवसरण रचवाया था।।
स्वयं अरी कर्मों को घाता, अर्हत्पदवी प्यारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
मृत्युजयी बन, सिद्धपती बन, लोक शिखर पर जा तिष्ठे।
गिरि सम्मेदशिखर है पावन, जहाँ से जिनवर मुक्त हुए।।
जजे चंदनामति प्रभु वर दो, मिले सिद्धगति न्यारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
हस्तिनागपुर की पावन भू, जहाँ प्रभुवर ने जन्म लिया।
पिता सुदर्शन मात मित्रसेना का जीवन धन्य किया।।
सुर नर वन्दित उन प्रभुवर को, नित प्रति धोक हमारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
तीर्थंकर, चक्री अरु कामदेव पदवी के धारी हो।
स्वर्ण वर्ण आभायुत जिनवर, काश्यप कुल अवतारी हो।।
मनभावन है रूप तिहारा, निरख-निरख बलिहारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
फाल्गुन वदि तृतिया को गर्भकल्याणक सभी मनाते हैं।
मगशिर सुदि चौदस की जन्मकल्याणक तिथि को ध्याते हैं।।
मगशिर सित दशमी दीक्षा ली, मुनी श्रेष्ठ पदधारी हैं,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
कार्तिक सुदि बारस में, केवलज्ञान उदित हो आया था।
हस्तिनागपुर में ही इन्द्र ने, समवसरण रचवाया था।।
स्वयं अरी कर्मों को घाता, अर्हत्पदवी प्यारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
मृत्युजयी बन, सिद्धपती बन, लोक शिखर पर जा तिष्ठे।
गिरि सम्मेदशिखर है पावन, जहाँ से जिनवर मुक्त हुए।।
जजे चंदनामति प्रभु वर दो, मिले सिद्धगति न्यारी है,
जिसने ध्याया सच्चे मन से, मिले ज्ञान उजियारी है।
भजन श्रेणी : जैन भजन (Read More : Jain Bhajan)
सिद्धों की श्रेणी में आने वाला जिनका नाम है।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
मोक्षमार्ग पर अंतिम क्षण तक, चलना जिनको इष्ट है।
जिन्हें न च्युत कर सकता पथ से, कोई विघ्न अनिष्ट है।।
दृढ़ता जिनकी है अगाध, और जिनका शौर्य अदम्य है।
साहस जिनका है अबाध, और जिनका धैर्य अगम्य है।।
जिनकी है निस्वार्थ साधना, जिनका तप निष्काम है ।।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
मन में किन्चित हर्ष न लाते, सुन अपना गुणगान जो।
और न अपनी निंदा सुनकर, करते हैं मुख म्लान जो।।
जिन्हें प्रतीत एक सी होती, स्तुतियाँ और गालियाँ।
सिर पर गिरती सुमनावलियाँ, चलती हुई दुनालियाँ।।
दोनों समय शांति में रहना, जिनका शुभ परिणाम है ।।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
हर उपसर्ग सहन जो करते, कहकर कर्म विचित्रता।
तन तज देते किंतु न तजते, अपनी ध्यान पवित्रता।।
एक दृष्टि से देखा करते, गर्मी वर्षा ठंड जो।
तप्त उष्ण लौ रिमझिम वर्षा, शीत तरंग प्रचंड जो।।
जिनको ज्यों है शीतल छाया, त्यों ही भीषण घाम है ।।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
जिन्हें कंकड़ों जैसा ही है, मणि मुक्ता का ढेर भी।
जिनका समता धन खरीदने, को असमर्थ कुबेर भी।।
दूर परिग्रह से रह माना, करते हैं संतोष जो।
रत्नत्रय से भरते रहते, अपना चेतन कोष जो।।
और उसी की रक्षा में, रत रहते आठों याम हैं ।।
जग के उन सब मुनिराजों को, मेरा नम्र प्रणाम है
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
मोक्षमार्ग पर अंतिम क्षण तक, चलना जिनको इष्ट है।
जिन्हें न च्युत कर सकता पथ से, कोई विघ्न अनिष्ट है।।
दृढ़ता जिनकी है अगाध, और जिनका शौर्य अदम्य है।
साहस जिनका है अबाध, और जिनका धैर्य अगम्य है।।
जिनकी है निस्वार्थ साधना, जिनका तप निष्काम है ।।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
मन में किन्चित हर्ष न लाते, सुन अपना गुणगान जो।
और न अपनी निंदा सुनकर, करते हैं मुख म्लान जो।।
जिन्हें प्रतीत एक सी होती, स्तुतियाँ और गालियाँ।
सिर पर गिरती सुमनावलियाँ, चलती हुई दुनालियाँ।।
दोनों समय शांति में रहना, जिनका शुभ परिणाम है ।।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
हर उपसर्ग सहन जो करते, कहकर कर्म विचित्रता।
तन तज देते किंतु न तजते, अपनी ध्यान पवित्रता।।
एक दृष्टि से देखा करते, गर्मी वर्षा ठंड जो।
तप्त उष्ण लौ रिमझिम वर्षा, शीत तरंग प्रचंड जो।।
जिनको ज्यों है शीतल छाया, त्यों ही भीषण घाम है ।।
जग के उन सब मुनिराजों को मेरा नम्र प्रणाम है।
जिन्हें कंकड़ों जैसा ही है, मणि मुक्ता का ढेर भी।
जिनका समता धन खरीदने, को असमर्थ कुबेर भी।।
दूर परिग्रह से रह माना, करते हैं संतोष जो।
रत्नत्रय से भरते रहते, अपना चेतन कोष जो।।
और उसी की रक्षा में, रत रहते आठों याम हैं ।।
जग के उन सब मुनिराजों को, मेरा नम्र प्रणाम है