श्री विमलनाथ चालीसा Shri Vimalnath Chalisa Vimalnath Chalisa Download PDF
भगवान श्री विमलनाथ जी जैन धर्म के तेरहवें तीर्थंकर थे। भगवान श्री विमलनाथ जी का जन्म माघ माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कम्पिला में हुआ था। भगवान श्री विमलनाथ जी के शरीर का रंग सुवर्ण था। भगवान श्री विमलनाथ जी का प्रतिक चिन्ह शूकर है। भगवान श्री विमलनाथ जी ने माघ माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को जामुन वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। भगवान श्री विमलनाथ जी ने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने का संदेश दिया है। भगवान श्री विमलनाथ जी ने संसार को नश्वर बताया है। उन्होंने कहा है कि सिर्फ धर्म ही स्थाई है, इसलिए धर्म का अनुसरण करो। उन्होंने बताया है कि धर्म का सबसे बड़ा आधार लोक कल्याण ही है। भगवान श्री विमलनाथ जी का चालीसा पढ़ने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भगवान श्री विमलनाथ जी के चालीसा पाठ से सभी बंधन दूर होते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान श्री विमलनाथ जी को सम्मेद शिखर पर आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को निर्वाण प्राप्त हुआ।
विमलनाथ चालीसा लिरिक्स हिंदी Vimalnath Chalisa Lyrics in Hindi
सिद्ध अनन्तानन्त नमन कर,सरस्वती को मन में ध्याय।
विमलप्रभु क्री विमल भक्ति कर,
चरण कमल में शीश नवाय।
जय श्री विमलनाथ विमलेश,
आठों कर्म किए नि:शेष।
कृतवर्मा के राजदुलारे,
रानी जयश्यामा के प्यारे।
मंगलीक शुभ सपने सारे,
जगजननी ने देखे न्यारे।
शुक्ल चतुर्थी माघ मास की,
जन्म जयन्ती विमलनाथ की।
जन्योत्सव देवों ने मनाया,
विमलप्रभु शुभ नाम धराया।
मेरु पर अभिषेक कराया,
गन्धोंदक श्रद्धा से लगाया।
वस्त्राभूषण दिव्य पहनाकर,
मात-पिता को सौंपा आकर।
साठ लाख वर्षायु प्रभु की,
अवगाहना थी साठ धनुष की।
कंचन जैसी छवि प्रभु-तन की,
महिमा कैसे गाऊँ मैं उनकी।
बचपन बीता, यौवन आया,
पिता ने राजतिलक करवाया।
चयन किया सुन्दर वधुओं का,
आयोजन किया शुभ विवाह का।
एक दिन देखी ओस घास पर,
हिमकण देखें नयन प्रीतिभर।
हुआ संसर्ग सूर्य रश्मि से,
लुप्त हुए सब मोती जैसे।
हो विश्वास प्रभु को कैसे,
खड़े रहे वे चित्रलिखित से।
क्षणभंगुर है ये संसार,
एक धर्म ही है बस सार।
वैराग्य हृदय में समाया,
छोडे क्रोध-मान और माया।
घर पहुँचे अनमने से होकर,
राजपाट निज सुत को देकर।
देवीमई शिविका पर चढ़कर,
गए सहेतुक वन में जिनवर।
माघ मास-चतुर्थी कारी,
"नम: सिद्ध" कह दीक्षाधारी।
रचना समोशरण हितकार,
दिव्य देशना हुई सुरवकार।
उपशम करके मिथ्यात्व का,
अनुभव करलो निज आत्म का।
मिथ्यात्व का होय निवारण,
मिटे संसार भ्रमण का कारणा।
बिन सम्यक्तव के जप-तप-पूजन,
विष्फल है सारे व्रत-अर्चन।
विषफल है ये विषयभोग सब,
इनको त्यागो हेय जान अब।
द्रव्य-भाव-नो कमोदि से,
भिन्न हैं आत्म देव सभी से।
निश्चय करके हे निज आतम का,
ध्यान करो तुम परमात्म का।
ऐसी प्यारी हित की वाणी,
सुनकर सुखी हुए सब प्राणी।
दूर-दूर तक हुआ विहार,
किया सभी ने आत्मोद्धारा।
'मन्दर' आदि पचपन गणधर,
अड़सठ सहस दिगम्बर मुनिवर।
उम्र रही जब तीस दिनों की,
जा पहुँचे सम्मेद शिखर जी।
हुआ बाह्य वैभव परिहार,
शेष कर्म बन्धन निरवार।
आवागमन का कर संहार,
प्रभु ने पाया मोक्षागारा।
षष्ठी कृष्णा मास आसाढ़,
देव करें जिनभवित प्रगाढ़।
सुबीर कूट पूजें मन लाय,
निर्वाणोत्सव को हर्षाय।
जो भवि विमलप्रभु को ध्यावे,
वे सब मन वांछित फल पावे।
'अरुणा' करती विमल-स्तवन,
ढीले हो जावें भव-बन्धन।
भगवान श्री विमलनाथ जी का प्रभावशाली मंत्र:
भगवान श्री विमलनाथ जी का मंत्र का जाप करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भगवान श्री विमलनाथ जी के इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति संसार के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भगवान श्री विमलनाथ जी का मंत्र:
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विमलप्रभु नमः।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री विमलप्रभु नमः।
श्री विमलनाथ चालीसा हिंदी लिरिक्स Shri Vimalnath Chalisa Hindi Lyrics
दोहाश्री अरिहंत जिनेश को, वंदूँ मन-वच-काय।
सिद्धप्रभू के पदकमल, नमूँ-नमूँ सिरनाय।।१।।
विमलनाथ भगवान को, मनमंदिर में धार।
लिखने का साहस करूँ, यह चालीसा पाठ।।२।।
हे जिनवाणी भारती, रहना मेरे पास।
जब तक पूरा हो नहीं, प्रभु का यह गुणगान।।३।।
चौपाई
ऋषभदेव से वासुपूज्य तक, बारह तीर्थंकर हैं सुखकर।।१।।
अब तेरहवें विमलनाथ जी, अमल-विमल पद प्राप्त प्रभू जी।।२।।
तुम हो निर्मल शुद्ध प्रभू जी, भाव-द्रव्य-नोकर्म रहित ही।।३।।
आत्मा शुद्ध बने हम सबकी, इसीलिए करते तुम भक्ती।।४।।
तुम जनमे वंâपिलापुरी में, पितु कृतवर्मा के महलों में।।५।।
मात तुम्हारी जयश्यामा थीं, तुमको जनकर[१] आनन्दित थीं।।६।।
निर्मल तीन ज्ञान से संयुत, प्रभु मलरहित गर्भ में स्थित।।७।।
ज्येष्ठ बदी दशमी को प्रभु का, गर्भकल्याण मनाते सुरगण।।८।।
पुन: माघ सित चौथ के दिन में, जिनवर जन्मे मध्यलोक में।।९।।
तीनलोक में आनन्द छाया, इन्द्र ने जन्मकल्याण मनाया।।१०।।
नामकरण भी इन्द्र ही करते, अपना पुण्य बढ़ाते रहते।।११।।
बत्तिस लख विमान का अधिपति, होता है सौधर्म इन्द्र ही।।१२।।
तो भी वह प्रभुवर के सम्मुख, ककर सम रहता है हरदम।।१३।।
इसीलिए तो वह भव्यात्मन्! इतना पुण्य करे एकत्रित।।१४।।
वह बस एक ही भव ले करके, पहुँच जाएगा सिद्धशिला पे।।१५।।
अब हम आगे विमलनाथ के, जीवन की कुछ बताते।।१६।।
काल कुमार का बीत गया जब, राजपाट मिल गया उन्हें तब।।१७।।
राज्यकार्य को करते-करते, तीन लाख हो गए वर्ष थे।।१८।।
ऋतु हेमन्त में बर्पâ विनशती, देख प्रभू को हुई विरक्ती।।१९।।
तत्क्षण राजपाट छोड़ा था, शिवपथ से नाता जोड़ा था।।२०।।
देवदत्त नामक पालकि से, गए सहेतुक वन में प्रभु जी।।२१।।
नम: सिद्ध कह दीक्षा ले ली, चौथा ज्ञान हुआ था तब ही।।२२।।
तीन वर्ष छद्मस्थकाल के, मौन सहित बीते प्रभुवर के।।२३।।
पुन: घातिया कर्म नाश हो, केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु को।।२४।।
गगनांगण में समवसरण की, रचना धनकुबेर ने कर दी।।२५।।
धनकुबेर के बारे में भी, वर्णन आता है शास्त्रों में।।२६।।
वो भी बहुत पुण्यशाली है, केवल एक भवावतारि है।।२७।।
समवसरण की महिमा देखो, चाहे अंधे या लंगड़े हों।।२८।।
बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़ते, बस केवल कुछ ही मिनटों में।।२९।।
प्रभु का समवसरण जहाँ जाता, हर प्राणी को मिलती साता।।३०।।
प्रभु की दिव्यध्वनि को सुनकर, कर लेते कल्याण भव्यजन।।३१।।
पूरे आर्यखण्ड में प्रभु ने, भ्रमण किया था समवसरण में।।३२।।
पुन: गए सम्मेदशिखर पर, कर्म अघाती भी विनशे तब।।३३।।
तिथि आषाढ़ कृष्ण अष्टमि थी, प्रभु ने पाई थी शिवलक्ष्मी।।३४।।
साठ धनुष तन की ऊँचाई, साठ लाख वर्षों की आयू।।३५।।
वर्ण आपका स्वर्ण सदृश था, घृष्टी[२] सोहे चिन्ह आपका।।३६।।
मेरे मन-वच-काय प्रभो! अब, पूर्ण विमल कर दो हे भगवन्!।।३७।।
तभी आत्मा निर्मल होगी, परमात्मा की प्राप्ती होगी।।३८।।
परमात्मा बनने तक भगवन्! कभी न छूटे सम्यग्दर्शन।।३९।।
क्योंकी यह सम्यग्दर्शन ही, देवेगा ‘‘सारिका’’ को मुक्ती।।४०।।
श्री विमलनाथ का चालीसा, निर्मल पद प्राप्त कराएगा।
सम्पूर्ण मलों को धो करके, आत्मा को स्वच्छ बनाएगा।।
इस युग में अभिनव ब्राह्मी-गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी ही शिष्या काव्यचन्द्रिका, मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
सब ‘छोटी माताजी’ कहते, उनकी ही पुण्य प्रेरणा से।
हूँ अल्पबुद्धि फिर भी यह चालीसा का पाठ लिखा मैंने।।
इसको चालिस दिन चालिस-चालिस, बार पढ़ो यदि भव्यात्मन्।
निश्चित ही मल से रहित अमल-आत्मा होगी इक दिन पावन।।२।।
सिद्धप्रभू के पदकमल, नमूँ-नमूँ सिरनाय।।१।।
विमलनाथ भगवान को, मनमंदिर में धार।
लिखने का साहस करूँ, यह चालीसा पाठ।।२।।
हे जिनवाणी भारती, रहना मेरे पास।
जब तक पूरा हो नहीं, प्रभु का यह गुणगान।।३।।
चौपाई
ऋषभदेव से वासुपूज्य तक, बारह तीर्थंकर हैं सुखकर।।१।।
अब तेरहवें विमलनाथ जी, अमल-विमल पद प्राप्त प्रभू जी।।२।।
तुम हो निर्मल शुद्ध प्रभू जी, भाव-द्रव्य-नोकर्म रहित ही।।३।।
आत्मा शुद्ध बने हम सबकी, इसीलिए करते तुम भक्ती।।४।।
तुम जनमे वंâपिलापुरी में, पितु कृतवर्मा के महलों में।।५।।
मात तुम्हारी जयश्यामा थीं, तुमको जनकर[१] आनन्दित थीं।।६।।
निर्मल तीन ज्ञान से संयुत, प्रभु मलरहित गर्भ में स्थित।।७।।
ज्येष्ठ बदी दशमी को प्रभु का, गर्भकल्याण मनाते सुरगण।।८।।
पुन: माघ सित चौथ के दिन में, जिनवर जन्मे मध्यलोक में।।९।।
तीनलोक में आनन्द छाया, इन्द्र ने जन्मकल्याण मनाया।।१०।।
नामकरण भी इन्द्र ही करते, अपना पुण्य बढ़ाते रहते।।११।।
बत्तिस लख विमान का अधिपति, होता है सौधर्म इन्द्र ही।।१२।।
तो भी वह प्रभुवर के सम्मुख, ककर सम रहता है हरदम।।१३।।
इसीलिए तो वह भव्यात्मन्! इतना पुण्य करे एकत्रित।।१४।।
वह बस एक ही भव ले करके, पहुँच जाएगा सिद्धशिला पे।।१५।।
अब हम आगे विमलनाथ के, जीवन की कुछ बताते।।१६।।
काल कुमार का बीत गया जब, राजपाट मिल गया उन्हें तब।।१७।।
राज्यकार्य को करते-करते, तीन लाख हो गए वर्ष थे।।१८।।
ऋतु हेमन्त में बर्पâ विनशती, देख प्रभू को हुई विरक्ती।।१९।।
तत्क्षण राजपाट छोड़ा था, शिवपथ से नाता जोड़ा था।।२०।।
देवदत्त नामक पालकि से, गए सहेतुक वन में प्रभु जी।।२१।।
नम: सिद्ध कह दीक्षा ले ली, चौथा ज्ञान हुआ था तब ही।।२२।।
तीन वर्ष छद्मस्थकाल के, मौन सहित बीते प्रभुवर के।।२३।।
पुन: घातिया कर्म नाश हो, केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु को।।२४।।
गगनांगण में समवसरण की, रचना धनकुबेर ने कर दी।।२५।।
धनकुबेर के बारे में भी, वर्णन आता है शास्त्रों में।।२६।।
वो भी बहुत पुण्यशाली है, केवल एक भवावतारि है।।२७।।
समवसरण की महिमा देखो, चाहे अंधे या लंगड़े हों।।२८।।
बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़ते, बस केवल कुछ ही मिनटों में।।२९।।
प्रभु का समवसरण जहाँ जाता, हर प्राणी को मिलती साता।।३०।।
प्रभु की दिव्यध्वनि को सुनकर, कर लेते कल्याण भव्यजन।।३१।।
पूरे आर्यखण्ड में प्रभु ने, भ्रमण किया था समवसरण में।।३२।।
पुन: गए सम्मेदशिखर पर, कर्म अघाती भी विनशे तब।।३३।।
तिथि आषाढ़ कृष्ण अष्टमि थी, प्रभु ने पाई थी शिवलक्ष्मी।।३४।।
साठ धनुष तन की ऊँचाई, साठ लाख वर्षों की आयू।।३५।।
वर्ण आपका स्वर्ण सदृश था, घृष्टी[२] सोहे चिन्ह आपका।।३६।।
मेरे मन-वच-काय प्रभो! अब, पूर्ण विमल कर दो हे भगवन्!।।३७।।
तभी आत्मा निर्मल होगी, परमात्मा की प्राप्ती होगी।।३८।।
परमात्मा बनने तक भगवन्! कभी न छूटे सम्यग्दर्शन।।३९।।
क्योंकी यह सम्यग्दर्शन ही, देवेगा ‘‘सारिका’’ को मुक्ती।।४०।।
श्री विमलनाथ का चालीसा, निर्मल पद प्राप्त कराएगा।
सम्पूर्ण मलों को धो करके, आत्मा को स्वच्छ बनाएगा।।
इस युग में अभिनव ब्राह्मी-गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी ही शिष्या काव्यचन्द्रिका, मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
सब ‘छोटी माताजी’ कहते, उनकी ही पुण्य प्रेरणा से।
हूँ अल्पबुद्धि फिर भी यह चालीसा का पाठ लिखा मैंने।।
इसको चालिस दिन चालिस-चालिस, बार पढ़ो यदि भव्यात्मन्।
निश्चित ही मल से रहित अमल-आत्मा होगी इक दिन पावन।।२।।
श्री विमलनाथ जिन पूजा Shri Vimalnath Jin Puja
सहस्रार दिवि त्यागि, नगर कम्पिला जनम लिय |कृत वर्मा नृप नंद, मातु जयश्यामा धर्मप्रिय |
तीन लोक वर नंद, विमल जिन विमल विमलकर |
थापूं चरन सरोज, जजन के हेतु भाव धर ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)
कंचन झारी धारि, पदम द्रह को नीर ले।
तृषा रोग निरवारि, विमल विमल गुन पूजिये।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
मलयागिर करपूर, देव वल्लभा संग घसि |
हरि मिथ्यातम भूर, विमल विमल गुन जजत हूँ ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
बासमती सुखदास, स्वेत निशपति को हँसे |
पूरे वाँछित आस, विमल विमल गुन जजत ही ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
पारिजात मंदार, संतानक सुरतरु जनित |
जजूं सुमन भरि थार, विमल विमल गुन मदनहर ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
नव्य गव्य रसपूर, सुवरण थाल भराय के |
छुधा वेदनी चूर, जजूं विमल पद विमल गुन ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
माणिक दीप अखंड, गो छार्इ वर गो दशों |
हरो मोहतम चंड, विमल विमल मति के धनी ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
अगुरु तगर घनसार, देवदारु कर चूर वर |
खेऊं वसु अरि जार, विमल विमल पद पद्म ढिंग ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
श्रीफल सेब अनार, मधुर रसीले पावने |
जजूं विमल पद सार, विघ्न हरे शिवफल करे ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
आठों दरब संवार, मन सुखदायक पावने |
जजूं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक अर्घ्यावली
(छन्द द्रुतविलम्बित तथा सुन्दरी वर्ण १२)
गरभ जेठ बदी दसमी भनो, परम पावन सो दिन शोभनो |
करत सेव सची जननी तणी, हम जजें पद पद्म शिरोमणी ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण दशम्यां गर्भमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
शुकल माघ तुरी तिथि जानिये, जनम मंगल ता दिन मानिये |
हरि तबै गिरिराज विषै जजे, हम समर्चत आनंद को सजे ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ल चतुर्थ्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तप धरे सित माघ तुरी भली, निज सुधातम ध्यावत हैं रली |
हरि फनेश नरेश जजें तहाँ, हम जजें नित आनंद सों इहाँ ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ल चतुर्थ्यां तपोमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।
विमल माघ रसी हनि घातिया, विमलबोध लयो सब भासिया |
विमल अर्घ चढ़ाय जजूं अबै, विमल आनंद देहु हमें सबै ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ल षष्ठ्यां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
भ्रमरसाढ़ छती अति पावनो, विमल सिद्ध भये मन भावनो |
गिर समेद हरी तित पूजिया, हम जजें इत हर्ष धरें हिया ||
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण षष्ठ्यां मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ५।
जयमाला
गहन चहत उड़गन गगन, छिति तिथि के छहँ जेम |
तिमि गुन वरनन वरनन माँहि होय तव केम |१|
साठ धनुष तन तुंग है, हेम वरन अभिराम |
वर वराह पद अंक लखि, पुनि पुनि करूं प्रणाम |२|
जय केवलब्रह्म अनंतगुनी, तुम ध्यावत शेष महेश मुनी |
परमातम पूरन पाप हनी, चित चिंतत दायक इष्ट धनी |३|
भव आतप ध्वसन इंदुकरं, वर सार रसायन शर्मभरं |
सब जन्म जरा मृतु दाहहरं, शरनागत पालन नाथ वरं |४|
नित संत तुम्हें इन नामनि तें, चित चिन्तत हैं गुनमाननि तें |
अमलं अचलं अटलं अतुलं, अरलं अछलं अथलं अकुलं |५|
अजरं अमरं अहरं अडरं, अपरं अभरं अशरं अनरं |
अमलीन अछीन अरीन हने, अमतं अगतं अरतं अघने |६|
अछुधा अतृषा अभयातम हो, अमदा अगदा अवदातम हो |
अविरुद्ध अक्रुद्ध अमनाधुना, अतलं असलं अन अंत गुना |७|
अरसं सरसं अकलं सकलं, अवचं सवचं अमचं सबलं |
इन आदि अनेक प्रकार सही, तुमको जिन सन्त जपें नित ही |८|
अब मैं तुमरी शरना पकरी, दु:ख दूर करो प्रभुजी हमरी |
हम कष्ट सहे भव कानन में, कुनिगोद तथा थल आनन मैं |९|
तित जामन मर्न सहे जितने, कहि केम सकें तुम सों तितने |
सुमुहूरत अंतरमाँहिं धरे, छह त्रै त्रय छ: छहकाय खरे |१०|
छिति वह्नि वयारिक साधरनं, लघु थूल विभेदनि सों भरनं |
परतेक वनस्पति ग्यार भये, छैः हजार दुवादश भेद लये |११|
सब द्वै त्रय भू षट् छ: सु भया, इक इन्द्रिय की परजाय लया |
जुग इन्द्रिय काय असी गहियो, तिय इन्द्रिय साठनि में रहियो |१२|
चतुरिंद्रिय चालिस देह धरा, पन इन्द्रिय के चवबीस वरा |
सब ये तन धार तहाँ सहियो, दु:ख घोर चितारित जात हियो |१३|
अब मो अरदास हिये धरिये, सुखदंद सबै अब ही हरिये |
मनवाँछित कारज सिद्ध करो, सुखसार सबै घर रिद्ध भरो |१४|
जय विमलजिनेशा, नुतनाकेशा, नागेशा नरर्इश सदा |
भवताप अशेषा, हरन निशेशा, दाता चिन्तित शर्म सदा |१५|
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्रीमत विमल जिनेशपद, जो पूजें मन लाय |
पूजें वाँछित आश तसु, मैं पूजूं गुन गाय ||
तीन लोक वर नंद, विमल जिन विमल विमलकर |
थापूं चरन सरोज, जजन के हेतु भाव धर ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)
कंचन झारी धारि, पदम द्रह को नीर ले।
तृषा रोग निरवारि, विमल विमल गुन पूजिये।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
मलयागिर करपूर, देव वल्लभा संग घसि |
हरि मिथ्यातम भूर, विमल विमल गुन जजत हूँ ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
बासमती सुखदास, स्वेत निशपति को हँसे |
पूरे वाँछित आस, विमल विमल गुन जजत ही ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
पारिजात मंदार, संतानक सुरतरु जनित |
जजूं सुमन भरि थार, विमल विमल गुन मदनहर ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
नव्य गव्य रसपूर, सुवरण थाल भराय के |
छुधा वेदनी चूर, जजूं विमल पद विमल गुन ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
माणिक दीप अखंड, गो छार्इ वर गो दशों |
हरो मोहतम चंड, विमल विमल मति के धनी ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
अगुरु तगर घनसार, देवदारु कर चूर वर |
खेऊं वसु अरि जार, विमल विमल पद पद्म ढिंग ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
श्रीफल सेब अनार, मधुर रसीले पावने |
जजूं विमल पद सार, विघ्न हरे शिवफल करे ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
आठों दरब संवार, मन सुखदायक पावने |
जजूं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण ||
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक अर्घ्यावली
(छन्द द्रुतविलम्बित तथा सुन्दरी वर्ण १२)
गरभ जेठ बदी दसमी भनो, परम पावन सो दिन शोभनो |
करत सेव सची जननी तणी, हम जजें पद पद्म शिरोमणी ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण दशम्यां गर्भमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
शुकल माघ तुरी तिथि जानिये, जनम मंगल ता दिन मानिये |
हरि तबै गिरिराज विषै जजे, हम समर्चत आनंद को सजे ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ल चतुर्थ्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तप धरे सित माघ तुरी भली, निज सुधातम ध्यावत हैं रली |
हरि फनेश नरेश जजें तहाँ, हम जजें नित आनंद सों इहाँ ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ल चतुर्थ्यां तपोमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।
विमल माघ रसी हनि घातिया, विमलबोध लयो सब भासिया |
विमल अर्घ चढ़ाय जजूं अबै, विमल आनंद देहु हमें सबै ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ल षष्ठ्यां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
भ्रमरसाढ़ छती अति पावनो, विमल सिद्ध भये मन भावनो |
गिर समेद हरी तित पूजिया, हम जजें इत हर्ष धरें हिया ||
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण षष्ठ्यां मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ५।
जयमाला
गहन चहत उड़गन गगन, छिति तिथि के छहँ जेम |
तिमि गुन वरनन वरनन माँहि होय तव केम |१|
साठ धनुष तन तुंग है, हेम वरन अभिराम |
वर वराह पद अंक लखि, पुनि पुनि करूं प्रणाम |२|
जय केवलब्रह्म अनंतगुनी, तुम ध्यावत शेष महेश मुनी |
परमातम पूरन पाप हनी, चित चिंतत दायक इष्ट धनी |३|
भव आतप ध्वसन इंदुकरं, वर सार रसायन शर्मभरं |
सब जन्म जरा मृतु दाहहरं, शरनागत पालन नाथ वरं |४|
नित संत तुम्हें इन नामनि तें, चित चिन्तत हैं गुनमाननि तें |
अमलं अचलं अटलं अतुलं, अरलं अछलं अथलं अकुलं |५|
अजरं अमरं अहरं अडरं, अपरं अभरं अशरं अनरं |
अमलीन अछीन अरीन हने, अमतं अगतं अरतं अघने |६|
अछुधा अतृषा अभयातम हो, अमदा अगदा अवदातम हो |
अविरुद्ध अक्रुद्ध अमनाधुना, अतलं असलं अन अंत गुना |७|
अरसं सरसं अकलं सकलं, अवचं सवचं अमचं सबलं |
इन आदि अनेक प्रकार सही, तुमको जिन सन्त जपें नित ही |८|
अब मैं तुमरी शरना पकरी, दु:ख दूर करो प्रभुजी हमरी |
हम कष्ट सहे भव कानन में, कुनिगोद तथा थल आनन मैं |९|
तित जामन मर्न सहे जितने, कहि केम सकें तुम सों तितने |
सुमुहूरत अंतरमाँहिं धरे, छह त्रै त्रय छ: छहकाय खरे |१०|
छिति वह्नि वयारिक साधरनं, लघु थूल विभेदनि सों भरनं |
परतेक वनस्पति ग्यार भये, छैः हजार दुवादश भेद लये |११|
सब द्वै त्रय भू षट् छ: सु भया, इक इन्द्रिय की परजाय लया |
जुग इन्द्रिय काय असी गहियो, तिय इन्द्रिय साठनि में रहियो |१२|
चतुरिंद्रिय चालिस देह धरा, पन इन्द्रिय के चवबीस वरा |
सब ये तन धार तहाँ सहियो, दु:ख घोर चितारित जात हियो |१३|
अब मो अरदास हिये धरिये, सुखदंद सबै अब ही हरिये |
मनवाँछित कारज सिद्ध करो, सुखसार सबै घर रिद्ध भरो |१४|
जय विमलजिनेशा, नुतनाकेशा, नागेशा नरर्इश सदा |
भवताप अशेषा, हरन निशेशा, दाता चिन्तित शर्म सदा |१५|
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्रीमत विमल जिनेशपद, जो पूजें मन लाय |
पूजें वाँछित आश तसु, मैं पूजूं गुन गाय ||
श्री विमलनाथ जी आरती Shri Vimalnath Ji Aarti
आरति करो रे,तेरहवें जिनवर विमलनाथ की आरति करो रे।।टेक.।।
कृतवर्मा पितु राजदुलारे, जयश्यामा के प्यारे।
कम्पिलपुरि में जन्म लिया है, सुर नर वंदें सारे।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
निर्मल त्रय ज्ञान सहित स्वामी की आरति करो रे।।१।।
शुभ ज्येष्ठ वदी दशमी प्रभु की, गर्भागम तिथि मानी जाती।
है जन्म और दीक्षाकल्याणक, माघ चतुर्थी सुदि आती।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
मनपर्ययज्ञानी तीर्थंकर की आरति करो रे।।२।।
सित माघ छट्ठ को ज्ञान हुआ, धनपति शुभ समवसरण रचता।
दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी और भव्यों का मन: कुमुद खिलता।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
केवलज्ञानी अर्हत प्रभुवर की आरति करो रे।।३।।
आषाढ़ वदी अष्टमि तिथि थी, पंचम गति प्रभुवर ने पाई।
शुभ लोक शिखर पर राजे जा, परमातम ज्योती प्रगटाई।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
उन सिद्धिप्रिया के अधिनायक की आरति करो रे।।४।।
हे विमल प्रभू! तव चरणों में, बस एक आश यह है मेरी।
मम विमल मती हो जावे प्रभु, मिल जाए मुझे भी सिद्धगती।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
‘‘चंदना’’ स्वात्मसुख पाने हेतू आरति करो रे।।५।।
कृतवर्मा पितु राजदुलारे, जयश्यामा के प्यारे।
कम्पिलपुरि में जन्म लिया है, सुर नर वंदें सारे।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
निर्मल त्रय ज्ञान सहित स्वामी की आरति करो रे।।१।।
शुभ ज्येष्ठ वदी दशमी प्रभु की, गर्भागम तिथि मानी जाती।
है जन्म और दीक्षाकल्याणक, माघ चतुर्थी सुदि आती।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
मनपर्ययज्ञानी तीर्थंकर की आरति करो रे।।२।।
सित माघ छट्ठ को ज्ञान हुआ, धनपति शुभ समवसरण रचता।
दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी और भव्यों का मन: कुमुद खिलता।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
केवलज्ञानी अर्हत प्रभुवर की आरति करो रे।।३।।
आषाढ़ वदी अष्टमि तिथि थी, पंचम गति प्रभुवर ने पाई।
शुभ लोक शिखर पर राजे जा, परमातम ज्योती प्रगटाई।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
उन सिद्धिप्रिया के अधिनायक की आरति करो रे।।४।।
हे विमल प्रभू! तव चरणों में, बस एक आश यह है मेरी।
मम विमल मती हो जावे प्रभु, मिल जाए मुझे भी सिद्धगती।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
‘‘चंदना’’ स्वात्मसुख पाने हेतू आरति करो रे।।५।।
श्री विमलनाथ विधान
मंगलाचरण
कर्ममलविनिर्मुक्तो, विमलाय नमो नम:।
तव नामस्मृतिर्लोवंâ, नैर्मल्यं कुरुते क्षणात्।।१।।
चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे।
भत्तिंâ स्तुतिं विनतिमंजलिमंजसैव।।
चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति।
यश्चर्वâरीति तव देव! स एव धन्यः।।२।।
नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय।
अनन्तलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।३।।
पद्यानुवाद
मन में भक्ति धरें मुख से, संस्तुती करें अति भक्ति भरें।
शिर से नमन करें करद्वय, कुड्मल पंकज अंजुली करें।।
इस विधि देव! तुम्हारी जो, भक्ति स्तुति नतिअंजुली करें।
धन्य वही हैं जीव जगत में, धन्य जन्म निज सफल करें।।२।।
नमो नमो हे सत्त्वहितंकर! भव्यकमलभास्कर हे ईश।
अनंत लोकपति सुर अर्चित जिन, नमूँ सुराधिप देव हमेश।।३।।
श्री विमलनाथ स्तुति
कांपिल्यपुरी पितु कृतवर्मा, माता जयश्यामा विख्याता।
शुभ ज्येष्ठ वदी दशमी प्रभु का, माता के गर्भ निवासा था।
निर्मल त्रय ज्ञान सहित स्वामी, मल रहित गर्भ में तिष्ठे थे।
सितमाघ चतुर्थी१ के दिन में, इन्द्रों से पूजित जन्मे थे।।१।।
सित माघ चतुर्थी दीक्षा ली, सित माघ छट्ठ को ज्ञान हुआ।
आषाढ़ वदी अष्टमि तिथि में, पंचम गति को प्रस्थान हुआ।।
दो सौ चालीस कर तुंग तनु, प्रभु साठ लाख वर्षायु थी।
कनकच्छवि घृष्टी२ लांछन तव, हे विमल! करो मम विमलमती।।२।।
मैं भाव कर्म और द्रव्यकर्म, नोकर्म मलों से भिन्न कहा।
मैं अमल अरूपी अविकारी, निश्चय नय से चििंत्पड कहा।।
चिच्चमत्कारमय ज्योतिपुंज, सहजानंदैक स्वभावी हूँ।
मैं केवलज्ञान अखंडपिंड़मय , सुख चिद्रूप स्वभावी हूँ।।३।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं मुझमें स्थिर हो जाऊँ।
अणुमात्र नहीं किंचित मेरा, मैं पर से ममता बिसराऊँ।।
मैं तुमको प्रणमूं बारबार, बस मम पूरी इक इच्छा हो।
एकाकी ‘ज्ञानमती’ प्रगटे, जहाँ पर की पूर्ण उपेक्षा हो।।४।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजिंल क्षिपेत् ।
मंगलाचरण
कर्ममलविनिर्मुक्तो, विमलाय नमो नम:।
तव नामस्मृतिर्लोवंâ, नैर्मल्यं कुरुते क्षणात्।।१।।
चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे।
भत्तिंâ स्तुतिं विनतिमंजलिमंजसैव।।
चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति।
यश्चर्वâरीति तव देव! स एव धन्यः।।२।।
नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय।
अनन्तलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।३।।
पद्यानुवाद
मन में भक्ति धरें मुख से, संस्तुती करें अति भक्ति भरें।
शिर से नमन करें करद्वय, कुड्मल पंकज अंजुली करें।।
इस विधि देव! तुम्हारी जो, भक्ति स्तुति नतिअंजुली करें।
धन्य वही हैं जीव जगत में, धन्य जन्म निज सफल करें।।२।।
नमो नमो हे सत्त्वहितंकर! भव्यकमलभास्कर हे ईश।
अनंत लोकपति सुर अर्चित जिन, नमूँ सुराधिप देव हमेश।।३।।
श्री विमलनाथ स्तुति
कांपिल्यपुरी पितु कृतवर्मा, माता जयश्यामा विख्याता।
शुभ ज्येष्ठ वदी दशमी प्रभु का, माता के गर्भ निवासा था।
निर्मल त्रय ज्ञान सहित स्वामी, मल रहित गर्भ में तिष्ठे थे।
सितमाघ चतुर्थी१ के दिन में, इन्द्रों से पूजित जन्मे थे।।१।।
सित माघ चतुर्थी दीक्षा ली, सित माघ छट्ठ को ज्ञान हुआ।
आषाढ़ वदी अष्टमि तिथि में, पंचम गति को प्रस्थान हुआ।।
दो सौ चालीस कर तुंग तनु, प्रभु साठ लाख वर्षायु थी।
कनकच्छवि घृष्टी२ लांछन तव, हे विमल! करो मम विमलमती।।२।।
मैं भाव कर्म और द्रव्यकर्म, नोकर्म मलों से भिन्न कहा।
मैं अमल अरूपी अविकारी, निश्चय नय से चििंत्पड कहा।।
चिच्चमत्कारमय ज्योतिपुंज, सहजानंदैक स्वभावी हूँ।
मैं केवलज्ञान अखंडपिंड़मय , सुख चिद्रूप स्वभावी हूँ।।३।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं मुझमें स्थिर हो जाऊँ।
अणुमात्र नहीं किंचित मेरा, मैं पर से ममता बिसराऊँ।।
मैं तुमको प्रणमूं बारबार, बस मम पूरी इक इच्छा हो।
एकाकी ‘ज्ञानमती’ प्रगटे, जहाँ पर की पूर्ण उपेक्षा हो।।४।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजिंल क्षिपेत् ।
ओं ह्रां णमो अरिहंताणं, ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं,ओं ह्रूं णमो आइरियाणं, ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं, ओं ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं, मम सर्व-ग्रहारिष्टान् निवारय निवारय अपमृत्युं घातय घातय सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा |
भजन श्रेणी : जैन भजन (Read More : Jain Bhajan)
वासु पूज्य महाराज का, चालीसा सुखकार ।
विनय प्रेम से बाँचिये, करके ध्यान विचार ।।
जय श्री वासुपूज्य सुखकारी, दीन दयाल बाल ब्रह्माचारी ।
अदभुत चम्पापुर रजधानी, धर्मी न्यायी ज्ञानी दानी ।।
वासु पूज्य यहाँ के राजा, करने राज काज निष्काजा ।
आपस में सब प्रेम बढ़ाने, बारह शुद्ध भावना भाते ।।
गऊ शेर आपस में मिलते, तीनो मौसम सुख में कटते ।
सब्जी फल घी दूध हो घर घर, आते जाते मुनि निरंतर ।।
वस्तु समय पर होती सारी, जहा न हो चोरी बीमारी ।
जिन मंदिर पर ध्वजा फहराए, घंटे घरनावल झान्नाये ।।
शोभित अतिशय माय प्रतिमायें, मन वैराग्य देख छा जावे ।
पूजन दर्शन नवहन करावे, करते आरती दीप जलाये ।।
राग रागिनी गायन गायें, तरह तरह के साज बजायें।
कोई अलौकिक नृत्य दिखावे, श्रावक भक्ति से भर जावें ।।
होती निश दिन शाष्त्र सभाए, पद्मासन करते स्वाध्याये ।
विषय कषाय पाप नसाये, संयम नियम विविएक सुहाये।।
रागद्वेष अभिमान नशाते, गृहस्थी त्यागी धर्म निभाते ।
मिटें परिग्रह सब तृष्नाये, अनेकांत दश धर्म रमायें ।।
छठ अषाढ़ बड़ी उर आये, विजया रानी भाग्य जगायें ।
सुन रानी से सुलह सुपने, राजा मन में लगे हरषने ।।
तीर्थंकर ले जन्म तुम्हारे, होंगे अब उद्धार हमारे ।
तीनो वक्त नित रत्न बरसते, विजया माँ के आँगन भरते ।।
साढ़े दस करोड़ थी गिनती, परजा अपनी झोली भरती ।
फागुन चौदस बदि जन्माये, सुरपति अदभुत जिन गुण गाये ।।
मति श्रुत अवधि ज्ञान भंडारी, चालीस गुण सब अतिशय धारी ।
नाटक तांडव नृत्य दिखाए, नव भाव प्रभु जी के दर्शाये ।।
पाण्डु शिला पर नव्हन कराये, वस्त्रभुषन वदन सजाये ।
सब जग उत्सव हर्ष मनाये, नारी नर सुर झुला झुलाये ।।
बीते सुख में दिन बचपन के, हुए अठारह लाख वर्ष के ।
आप बारहवे हो तीर्थंकर, भैसा चिन्ह आपका जिनवर ।।
धनुष पचास वदन केसरिया, निस्पृह पर उपकार करइया ।
दर्शन पूजा जप तप करते, आत्म चिंतवन में नित रमते ।।
गुरु मुनियों का आदर करते, पाप विषय भोगो से बचते ।
शादी अपनी नहीं कराई, हारे तात मात समझाई ।।
मात पिता राज तज दिने, दीक्षा ले दुध्दर तप कीने ।
माघ सुदी दोयज दिन आया, केवल ज्ञान आपने पाया ।।
समोशरण सुर रचे जहाँ पर, छासठ उसमे रहते गणधर ।
वासुपूज्य की खिरती वाणी, जिसको गणधर्वो ने जानी ।।
मुख से उनके वो निकली थी, सब जीवों ने वो समझी थी ।
आपा आप आप प्रगटाया, निज गुण ज्ञान भान चमकाया ।।
हर भूलो को राह दिखाई, रत्नत्रय की ज्योत जलाई ।
आतम गुण अनुभव करवाया, सुमत जैन मत जग फैलाया ।।
सुदी भादवा चौदस आई, चंपा नगरी मुक्ति पाई ।
आयु बहत्तर लाख वर्ष की, बीती सारी हर्ष धर्म की ।।
और चौरानवे थे श्री मुनिवर, पहुच गए वो भी सब शिवपुर ।
तभी वहा इन्द्र सुर आये, उत्सव मिल निर्वाण मनाये ।।
देह उडी कपूर समाना, मधुर सुगंधी फैला नाना ।
फैलाई रत्नों की माला, चारो दिश चमके उजियाला ।।
कहे सुमत क्या गुण जिनराई, तुम पर्वत हो मैं हु राई ।
जब ही भक्ति भाव हुआ हैं, चंपापुर का ध्यान किया हैं ।
लगी आश मैं भी कभी जाऊ, वासुपूज्य के दर्शन पाऊ ।।
सोरठा
खेये धुप सुगंध, वासुपूज्य प्रभु ध्यान के ।
कर्म भार सब तार, रूप स्वरुप निहार के ।।
मति जो मन में होय, रहे वेसी हो गति आय के ।
करो सुमत रसपान, सरल निजातम पाय के ।।
विनय प्रेम से बाँचिये, करके ध्यान विचार ।।
जय श्री वासुपूज्य सुखकारी, दीन दयाल बाल ब्रह्माचारी ।
अदभुत चम्पापुर रजधानी, धर्मी न्यायी ज्ञानी दानी ।।
वासु पूज्य यहाँ के राजा, करने राज काज निष्काजा ।
आपस में सब प्रेम बढ़ाने, बारह शुद्ध भावना भाते ।।
गऊ शेर आपस में मिलते, तीनो मौसम सुख में कटते ।
सब्जी फल घी दूध हो घर घर, आते जाते मुनि निरंतर ।।
वस्तु समय पर होती सारी, जहा न हो चोरी बीमारी ।
जिन मंदिर पर ध्वजा फहराए, घंटे घरनावल झान्नाये ।।
शोभित अतिशय माय प्रतिमायें, मन वैराग्य देख छा जावे ।
पूजन दर्शन नवहन करावे, करते आरती दीप जलाये ।।
राग रागिनी गायन गायें, तरह तरह के साज बजायें।
कोई अलौकिक नृत्य दिखावे, श्रावक भक्ति से भर जावें ।।
होती निश दिन शाष्त्र सभाए, पद्मासन करते स्वाध्याये ।
विषय कषाय पाप नसाये, संयम नियम विविएक सुहाये।।
रागद्वेष अभिमान नशाते, गृहस्थी त्यागी धर्म निभाते ।
मिटें परिग्रह सब तृष्नाये, अनेकांत दश धर्म रमायें ।।
छठ अषाढ़ बड़ी उर आये, विजया रानी भाग्य जगायें ।
सुन रानी से सुलह सुपने, राजा मन में लगे हरषने ।।
तीर्थंकर ले जन्म तुम्हारे, होंगे अब उद्धार हमारे ।
तीनो वक्त नित रत्न बरसते, विजया माँ के आँगन भरते ।।
साढ़े दस करोड़ थी गिनती, परजा अपनी झोली भरती ।
फागुन चौदस बदि जन्माये, सुरपति अदभुत जिन गुण गाये ।।
मति श्रुत अवधि ज्ञान भंडारी, चालीस गुण सब अतिशय धारी ।
नाटक तांडव नृत्य दिखाए, नव भाव प्रभु जी के दर्शाये ।।
पाण्डु शिला पर नव्हन कराये, वस्त्रभुषन वदन सजाये ।
सब जग उत्सव हर्ष मनाये, नारी नर सुर झुला झुलाये ।।
बीते सुख में दिन बचपन के, हुए अठारह लाख वर्ष के ।
आप बारहवे हो तीर्थंकर, भैसा चिन्ह आपका जिनवर ।।
धनुष पचास वदन केसरिया, निस्पृह पर उपकार करइया ।
दर्शन पूजा जप तप करते, आत्म चिंतवन में नित रमते ।।
गुरु मुनियों का आदर करते, पाप विषय भोगो से बचते ।
शादी अपनी नहीं कराई, हारे तात मात समझाई ।।
मात पिता राज तज दिने, दीक्षा ले दुध्दर तप कीने ।
माघ सुदी दोयज दिन आया, केवल ज्ञान आपने पाया ।।
समोशरण सुर रचे जहाँ पर, छासठ उसमे रहते गणधर ।
वासुपूज्य की खिरती वाणी, जिसको गणधर्वो ने जानी ।।
मुख से उनके वो निकली थी, सब जीवों ने वो समझी थी ।
आपा आप आप प्रगटाया, निज गुण ज्ञान भान चमकाया ।।
हर भूलो को राह दिखाई, रत्नत्रय की ज्योत जलाई ।
आतम गुण अनुभव करवाया, सुमत जैन मत जग फैलाया ।।
सुदी भादवा चौदस आई, चंपा नगरी मुक्ति पाई ।
आयु बहत्तर लाख वर्ष की, बीती सारी हर्ष धर्म की ।।
और चौरानवे थे श्री मुनिवर, पहुच गए वो भी सब शिवपुर ।
तभी वहा इन्द्र सुर आये, उत्सव मिल निर्वाण मनाये ।।
देह उडी कपूर समाना, मधुर सुगंधी फैला नाना ।
फैलाई रत्नों की माला, चारो दिश चमके उजियाला ।।
कहे सुमत क्या गुण जिनराई, तुम पर्वत हो मैं हु राई ।
जब ही भक्ति भाव हुआ हैं, चंपापुर का ध्यान किया हैं ।
लगी आश मैं भी कभी जाऊ, वासुपूज्य के दर्शन पाऊ ।।
सोरठा
खेये धुप सुगंध, वासुपूज्य प्रभु ध्यान के ।
कर्म भार सब तार, रूप स्वरुप निहार के ।।
मति जो मन में होय, रहे वेसी हो गति आय के ।
करो सुमत रसपान, सरल निजातम पाय के ।।
Author - Saroj Jangir
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