जैन धर्मानुसार पृथ्वी पर जीवों के कल्याण हेतु उपदेश देने के लिए समय-समय पर 24 तीर्थंकर आते हैं। जैन धर्म के अनुसार जीव और कर्म का यह संबंध अनादि काल से ही चला रहा है। जैन धर्म की मान्यता है कि जब व्यक्ति अपने कर्म को अपनी आत्मा से संपूर्ण रूप से मुक्त कर देता है तो वह स्वयं भी भगवान बन जाता है। भगवान बनने के लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यही जैन धर्म की मौलिकता है। जैन धर्म में सत्य और अहिंसा को ही परम धर्म बताया गया है। सत्य के मार्ग पर चलकर और अहिंसा को अपनाकर स्वयं और दूसरों का कल्याण कर सकता है। इसी तरह जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी का आविर्भाव हुआ। उनका जन्म वाराणसी के इक्ष्वाकु वंश में जेष्ठ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा प्रतिष्ठ और माता का नाम पृथ्वी देवी था। इनका चिन्ह स्वस्तिक था। भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी के अनुसार व्यक्ति को सत्य के पथ पर चलना चाहिए और अहिंसा का रास्ता अपनाना चाहिए। अहिंसा को अपनाकर ही व्यक्ति अपना एवं समाज का कल्याण कर सकता है। भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर थे।
तीर्थंकर सुपार्श्व जिनराज, नयन द्वार को खोल खडे हैं, आओ विराजो हे जगनाथ। सुन्दर नगर वारानसी स्थित, राज्य करे राजा सुप्रतिष्ठित। पृथ्वीसेना उनकी रानी, देखे स्वप्न सोलह अभिरामी। तीर्थंकर सुत गर्भमें आए, सुरगण आकर मोद मनायें। शुक्ला ज्येष्ठ द्वादशी शुभ दिन, जन्मे अहमिन्द्र योग में श्रीजिन। जन्मोत्सव की खूशी असीमित, पूरी वाराणसी हुई सुशोभित। बढे सुपार्श्वजिन चन्द्र समान, मुख पर बसे मन्द मुस्कान। समय प्रवाह रहा गतीशील, कन्याएँ परणाई सुशील। लोक प्रिय शासन कहलाता, पर दुष्टो का दिल दहलाता। नित प्रति सुन्दर भोग भोगते, फिर भी कर्मबन्द नही होते। तन्मय नही होते भोगो में, दृष्टि रहे अन्तर-योगो में। एक दिन हुआ प्रबल वैराग्य, राजपाट छोड़ा मोह त्याग। दृढ़ निश्चय किया तप करने का, करें देव अनुमोदन प्रभु का। राजपाट निज सुत को देकर, गए सहेतुक वन में जिनवर। ध्यान में लीन हुए तपधारी, तपकल्याणक करे सुर भारी। हुए एकाग्र श्री भगवान, तभी हुआ मनः पर्यय ज्ञान। शुद्धाहार लिया जिनवर ने, सोमखेट भूपति के ग्रह में। वन में जा कर हुए ध्यानस्त, नौ वर्षों तक रहे छद्मस्थ। दो दिन का उपवास धार कर, तरू शिरीष तल बैठे जा कर। स्थिर हुए पर रहे सक्रिय,
कर्मशत्रु चतुः किये निष्क्रय। क्षपक श्रेणी में हुए आरूढ़, ज्ञान केवली पाया गूढ़। सुरपति ज्ञानोत्सव कीना, धनपति ने समो शरण रचीना। विराजे अधर सुपार्श्वस्वामी, दिव्यध्वनि खिरती अभिरामी। यदि चाहो अक्ष्य सुखपाना, कर्माश्रव तज संवर करना। अविपाक निर्जरा को करके, शिवसुख पाओ उद्यम करके। चतुः दर्शन-ज्ञान अष्ट बतायें, तेरह विधि चारित्र सुनायें। सब देशो में हुआ विहार, भव्यो को किया भव से पार। एक महिना उम्र रही जब, शैल सम्मेद पे, किया उग्र तप। फाल्गुन शुक्ल सप्तमी आई, मुक्ती महल पहुँचे जिनराई। निर्वाणोत्सव को सुर आये । कूट प्रभास की महिमा गाये। स्वास्तिक चिन्ह सहित जिनराज, पार करें भव सिन्धु-जहाज। जो भी प्रभु का ध्यान लगाते, उनके सब संकट कट जाते। चालीसा सुपार्श्व स्वामी का, मान हरे क्रोधी कामी का। जिन मंदिर में जा कर पढ़ना, प्रभु का मन से नाम सुमरना। हमको है दृढ़ विश्वास, पूरण होवे सबकी आस।
श्री सुपार्श्वनाथ चालीसा
दोहा - चार घातिया कर्म को, नाश बने अरिहंत। अष्टकर्म को नष्टकर, बने सिद्ध भगवंत।।१।। छत्तिस मूलगुणों सहित, श्री आचार्य महान। पच्चिस गुण संयुक्त हैं, उपाध्याय गुरु जान।।२।। गुण अट्ठाइस साधु के, ये पाँचों परमेष्ठि। इनको वंदूँ मैं सदा, श्रद्धा भक्ति समेत।।३।। बिना सरस्वती मात के, होता नहिं कुछ ज्ञान। इसीलिए उनको करूँ, शत-शत बार प्रणाम।।४।।
चौपाई - श्री सुपार्श्व के चरण कमल को, अपने मनमंदिर में रखके।।१।। कुछ क्षण ध्यान करें यदि प्रियवर! शान्ति मिलेगी अद्भुत अनुपम।।२।। प्रभु तुम हो सप्तम तीर्थंकर, स्वस्तिक चिन्ह सहित हो प्रभुवर।।३।। तुम हो हरित वर्ण के धारी, राग-द्वेष विरहित अविकारी।।४।। नगरि बनारस में तुम जन्मे, नरकों में भी कुछ क्षण सुख के।।५।। पृथ्वीषेणा माँ पुलकित थीं, नहिं सीमा थी पितु के सुख की।।६।।
Chalisa Lyrics in Hindi,Jain Bhajan Lyrics Hindi
भादों शुक्ला षष्ठी तिथि में, मात गर्भ में आए प्रभु जी।।७।। शुक्तापुट में मुक्ताफलवत्, माँ को क्लेश नहीं था विंâचित्।।८।। पुन: ज्येष्ठ शुक्ला बारस तिथि, जिनवर जन्म से धन्य हुई थी।।९।। अठ सौ कर ऊँचे प्रभुवर की, आयू बीस लाख पूरब थी।।१०।। शास्त्रों में इक बात लिखी है, जिनवर नाम रखे सुरपति ही।।११।। किसी समय ऋतु परिवर्तन को, देख प्रभू वैरागी हो गए।।१२।। तत्क्षण देव पालकी लाए, उस पर बैठ प्रभू बन जाएँ।।१३।। बेला का ले लिया नियम था, नम: सिद्ध कह ले ली दीक्षा।।१४।। इक हजार राजा भी संग में, दीक्षा ले तप में निमग्न थे।।१५।। फाल्गुन कृष्णा षष्ठी तिथि में, प्रभु के कर्म घातिया विनशे।।१६।। ज्ञानावरण-दर्शनावरणी, मोहनीय अरु अन्तराय भी।।१७।। ये चारों ही कर्मघातिया, इनसे आत्मगुणों को बाधा।।१८।। कौन सा कर्म नष्ट हो करके, किस गुण को प्रगटित करता है।।१९।। यह तुम जानो आज बंधुओं! अच्छे से फिर याद भी कर लो।।२०।। ज्ञानावरण कर्म जब नशता, ज्ञान अनन्त उपस्थित होता।।२१।। कर्म दर्शनावरण नशे जब, अनन्त दर्शन प्रगटित हो तब।।२२।। मोहनीय सब ही कर्मों का, प्रियवर! राजा है कहलाता।।२३।। इसका नाश करें जब प्रभुवर! तब प्रगटित हो क्षायिक समकित।।२४।। अन्तराय का नाश करें जब, वीर्य अनन्त प्रगट होता तब।।२५।। ये केवलज्ञानी भगवन् के, चार अनन्तचतुष्टय प्रगटें।।२६।। प्रातिहार्य हैं आठ कहाए, नाम तुम्हें हम उनके बताएँ।।२७।। तरु अशोक-सिंहासन सुंदर, तीन छत्र-भामण्डल मनहर।।२८।। दिव्यध्वनि-पुष्पों की वृष्टी, चौंसठ चंवर और सुरदुंदुभि।।२९।। ये सब तो अर्हंत प्रभू के, छ्यालिस गुण में से ही कहे हैं।।३०।। अब तुम सुनो सुपार्श्वप्रभू के, अष्टकर्म कब नष्ट हुए थे ?।।३१।। फाल्गुन कृष्णा सप्तमितिथि में, मोक्षधाम में पहुँचे प्रभु जी।।३२।। नाथ! आप त्रैलोक्य गुरु हैं, भक्तों को सब सुख देते हैं।।३३।। श्री सम्मेदशिखर की धरती, मोक्ष से पावन-पूज्य हुई थी।।३४।। इक्कीसवीं टोंक की मिट्टी, सब रोगों को नष्ट है करती।।३५।। तुम भी उस मिट्टी को लगाओ, तन अपना नीरोग बनाओ।।३६।। श्री सुपार्श्व जिनराज तुम्हें हम, शत-शत बार नमन करते हैं।।३७।। प्रभु ने पंचकल्याणक वैभव, प्राप्त किए हैं पुण्य उदय से।।३८।। मुझको भी प्रभु शक्ती दे दो, पुण्य करूँ यह बुद्धी दे दो।।३९।। तभी ‘‘सारिका’’ पुण्य की गगरी, मेरी पूरी भरे शीघ्र ही।।४०।।
श्री सुपार्श्व जिनराज का, यह चालीसा पाठ। पढ़ने से मिल जाएगा, तुमको निज साम्राज्य।।१।। गणिनी माता ज्ञानमती, श्रुतचन्द्रिका महान। उनकी शिष्या चन्दना-मती मात विख्यात।।२।। शिष्याशिरोमणी हैं ये, शिष्याओं में प्रधान। उनकी पावन प्रेरणा, से ही लिखा ये पाठ।।३।। पढ़ने वाले भक्तगण, प्राप्त करें श्रुतज्ञान। जग के सब सुख प्राप्त कर, दूर करें अज्ञान।।४।।
श्री सुपार्श्वनाथ चालीसा
दोहा शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूं प्रणाम। उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मंदिर सुखकार। अहिच्छत्र और पार्श्व को, मन मंदिर में धार।| ।।चौपाई।। पार्श्वनाथ जगत हितकारी, हो स्वामी तुम व्रत के धारी। सुर नर असुर करें तुम सेवा, तुम ही सब देवन के देवा। तुमसे करम शत्रु भी हारा, तुम कीना जग का निस्तारा। अश्वसेन के राजदुलारे, वामा की आंखों के तारे। काशीजी के स्वामी कहाए, सारी परजा मौज उड़ाए। इक दिन सब मित्रों को लेके, सैर करन को वन में पहुंचे। हाथी पर कसकर अम्बारी, इक जंगल में गई सवारी। एक तपस्वी देख वहां पर, उससे बोले वचन सुनाकर। तपसी! तुम क्यों पाप कमाते, इस लक्कड़ में जीव जलाते। तपसी तभी कुदाल उठाया, उस लक्कड़ को चीर गिराया। निकले नाग-नागनी कारे, मरने के थे निकट बिचारे। रहम प्रभु के दिल में आया, तभी मंत्र नवकार सुनाया। मरकर वो पाताल सिधाए, पद्मावती धरणेन्द्र कहाए। तपसी मरकर देव कहाया, नाम कमठ ग्रंथों में गाया। एक समय श्री पारस स्वामी, राज छोड़कर वन की ठानी। तप करते थे ध्यान लगाए, इक दिन कमठ वहां पर आए। फौरन ही प्रभु को पहिचाना, बदला लेना दिल में ठाना। बहुत अधिक बारिश बरसाई, बादल गरजे बिजली गिराई। बहुत अधिक पत्थर बरसाए, स्वामी तन को नहीं हिलाए। पद्मावती धरणेन्द्र भी आए, प्रभु की सेवा में चित लाए। धरणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सिर पर छत्र बनाया। पद्मावती ने फन फैलाया, उस पर स्वामी को बैठाया। कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, समोशरण देवेन्द्र रचाया। यही जगह अहिच्छत्र कहाए, पात्र केशरी जहां पर आए। शिष्य पांच सौ संग विद्वाना, जिनको जाने सकल जहाना। पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, सबने जैन धरम अपनाया। अहिच्छत्र श्री सुन्दर नगरी, जहां सुखी थी परजा सगरी। राजा श्री वसुपाल कहाए, वो इक जिन मंदिर बनवाए। प्रतिमा पर पालिश करवाया, फौरन इक मिस्त्री बुलवाया। वह मिस्तरी मांस था खाता, इससे पालिश था गिर जाता। मुनि ने उसे उपाय बताया, पारस दर्शन व्रत दिलवाया। मिस्त्री ने व्रत पालन कीना, फौरन ही रंग चढ़ा नवीना। गदर सतावन का किस्सा है, इक माली का यों लिक्खा है। वह माली प्रतिमा को लेकर, झट छुप गया कुए के अंदर। उस पानी का अतिशय भारी, दूर होय सारी बीमारी। जो अहिच्छत्र हृदय से ध्वावे, सो नर उत्तम पदवी वावे। पुत्र संपदा की बढ़ती हो, पापों की इकदम घटती हो। है तहसील आंवला भारी, स्टेशन पर मिले सवारी। रामनगर इक ग्राम बराबर, जिसको जाने सब नारी-नर। चालीसे को ‘चन्द्र’ बनाए, हाथ जोड़कर शीश नवाए। सोरठा नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन। खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में आय के। होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो। जिसके नहिं संतान, नाम वंश जग में चले।
Shri Parasnath Ji Ki Aarti
ॐ जय पारस देवा, स्वामी जय पारस देवा | सुर नर मुनिजन तुम चरणन की, करते नित सेवा |
पौष वदी ग्यारस काशी में, आनंद अतिभारी-2, अश्वसेन वामा माता उर-2, लीनो अवतारी | ॐ जय पारस देवा |
श्यामवरण नवहस्त काय पग, उरग लखन सोहें-2, सुरकृत अति अनुपम पा भूषण-2, सबका मन मोहें | ॐ जय पारस देवा |
जलते देख नाग नागिन को, मंत्र नवकार दिया-2, हरा कमठ का मान ज्ञान का-2, भानु प्रकाश किया | ॐ जय पारस देवा |
मात पिता तुम स्वामी मेरे, आस करूँ किसकी-2, तुम बिन दाता और न कोर्इ-2, शरण गहूँ जिसकी | ॐ जय पारस देवा |
तुम परमातम तुम अध्यातम, तुम अंतर्यामी-2, स्वर्ग-मोक्ष के दाता तुम हो-2, त्रिभुवन के स्वामी | ॐ जय पारस देवा |
दीनबंधु दु:खहरण जिनेश्वर, तुम ही हो मेरे-2, दो शिवधाम को वास दास-2, हम द्वार खड़े तेरे | ॐ जय पारस देवा |