किस्सा गोपीचन्द लख्मीचन्द

किस्सा "गोपीचन्द" लख्मीचन्द

कान पङा लिये जोग ले लिया
 
कान पड़ा लिये जोग ले लिया, इब गैल गुरु की जाना सै।
अपने हाथां जोग दिवाया, इब के पछताना सै।।

धिंग्टाणे तै जोग दिवाया, मेरे गळ में घलगी री माँ।
इब भजन करूं और गुरु की सेवा, याहे शिक्षा मिलगी री माँ।
उल्टा घर नै चालूं कोन्या, जै पेश मेरी कुछ चलगी री माँ।
इस विपदा नै ओटूंगा जै, मेरे तन पै झिलगी री माँ।।

तन्नै कही थी उस तरीयां तै, इब मांग कै टुकड़ा खाना सै।
अपने हाथां जोग दिवाया, इब के पछताना सै।।
 
बोल सुण्या जब साधू का
 
बोल सुन्या जब साधु का, खाटका लग्या गात के म्हाँ।
पाटमदे झट चाल पड़ी, उनै भोजन लिया हाथ के म्हाँ।।

उठण लागी ल्हौर बदन में, जब नैनों से नैन लड़ी।
मेरे पिया बिन सोचे समझे, या गलती कर दी बहुत बड़ी।।
हिया उजळ कै आवण लाग्या, आंख्यां तै गई लाग झड़ी।
हाथ जोड़ कै पाटमदे झट, शीश झुका कै हुई खड़ी।।

कहे लख्मीचन्द न्यूँ बोली, तू क्यूँ ना रह्या साथ के म्हाँ।।
पाटमदे झट चाल पड़ी, उनै भोजन लिया हाथ के म्हाँ।।
 
तळै खड्या क्युं रुके मारै चढ्ज्या जीने पर कै
 
तळै खड़्या क्यूँ रुके, मारै चढ़्या जीने पर कै।
एक मुट्ठी मन्नै भिक्षा चहिए, देज्या तळै उतर कै।।

सुपने आळी बात पिया, मेरी बिल्कुल साची पाई।
बेटा कह कै भीख घालज्या, जोग सफल हो माई।।
बेटा क्युकर कहूं तन्नै, तू सगी नणंद का भाई।
उन नेगां नै भूल बिसरज्या, दे छोड़ पहाड़ी राही।।

पिया सोने के मन्नै थाळ परोसे, जीम लिये मन भर कै।
राख घोल कै पीज्या साधु, हर का नाम सुमर कै।।
तळै खड़्या क्यूँ रुके, मारै चढ़्या जीने पर कै।। 



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Saroj Jangir Author Admin - Saroj Jangir

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