हरि समान दाता कोउ नाहीं
हरि समान दाता कोउ नाहीं,
सदा बिराजैं संतनमाहीं।
नाम बिसंभर बिस्व जिआवैं,
साँझ बिहान रिजिक पहुँचावै।
देइ अनेकन मुखपर ऐने,
औगुन करै सोगुन करि मानैं।
काहू भाँति अजार न देई,
जाही को अपना कर लेई।
घरी घरी देता दीदार,
जन अपनेका खिजमतगार।
तीन लोक जाके औसाफ,
जनका गुनह करै सब माफ।
गरुवा ठाकुर है रघुराई,
कहैं मूलक क्या करूँ बड़ाई।
गुरु समान दाता कोई नही ! guru saman data koee nahi
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