एक पल बीते जैसे कल्प समान रे सीता विलाप
एक पल बीते जैसे कल्प समान रे सीता विलाप
कागा सब तन खाई जयो,
मेरा चुन चुन खाई जयो मांस,
मेरा दो नैण मत खाई जयो,
म्हाने राम मिलन की आस।
एक पल बीते जैसे,
कल्प समान रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
पानी तक पीऊं नाहीं,
अन्न नहीं खाऊं मैं,
आप किया भोगूं पिया,
घणी पछताऊं मैं,
कार पार कर दीनी,
तोड़ी लखन आन रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
लकड़ी ल्याऊं चिता बनाऊं,
काया भस्म करूं मैं,
सुली सम छण बीते,
कैसे धीर धरूं मैं,
कर आत्मघात नाथ,
तज दूंगी प्राण रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
कपटी रूप कियो रावण,
भेष धर आया रे,
भिक्षा ल्यावो प्रण निभावो,
यह फरमाया रे,
गृहस्थ धर्म कुल मर्यादा,
टूट्या होव हाण रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
सूखा दिल दरिया नैण,
काली पड़ गई काया रे,
पापी दुष्ट राक्षसों की,
देख देख माया रे,
पवन कहे बलवन्ता,
हुणी बलवान रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
एक पल बीते जैसे,
कल्प समान रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
मेरा चुन चुन खाई जयो मांस,
मेरा दो नैण मत खाई जयो,
म्हाने राम मिलन की आस।
एक पल बीते जैसे,
कल्प समान रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
पानी तक पीऊं नाहीं,
अन्न नहीं खाऊं मैं,
आप किया भोगूं पिया,
घणी पछताऊं मैं,
कार पार कर दीनी,
तोड़ी लखन आन रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
लकड़ी ल्याऊं चिता बनाऊं,
काया भस्म करूं मैं,
सुली सम छण बीते,
कैसे धीर धरूं मैं,
कर आत्मघात नाथ,
तज दूंगी प्राण रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
कपटी रूप कियो रावण,
भेष धर आया रे,
भिक्षा ल्यावो प्रण निभावो,
यह फरमाया रे,
गृहस्थ धर्म कुल मर्यादा,
टूट्या होव हाण रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
सूखा दिल दरिया नैण,
काली पड़ गई काया रे,
पापी दुष्ट राक्षसों की,
देख देख माया रे,
पवन कहे बलवन्ता,
हुणी बलवान रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
एक पल बीते जैसे,
कल्प समान रे,
कदगी मैं जोऊं बाट,
ना आए भगवान रे।
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“कागा सब तन खाई जयो, मेरा चुन चुन खाई जयो मांस, मेरा दो नैण मत खाई जयो, म्हाने राम मिलन की आस”—यह पंक्ति विरह की तीव्रतम व्यथा है। देह नश्वर है, पर इन नेत्रों में राम के दर्शन की आस है, इसलिए इन पर आघात न हो। यह गहन प्रतीक है कि शरीर भले मिट जाए, किंतु प्रभु‑मिलन की आशा आत्मा के साथ अडिग रहती है।
हर क्षण कल्प‑समान लगना, भूख-प्यास का लोप, और दिन‑रात केवल उनके दर्शन की प्रतीक्षा—ये भाव सच्ची प्रेम‑भक्ति का प्रतीक हैं। यह विरह आत्मा की अग्नि है जो उसे शुद्ध करती है, और उसी अग्नि से ईश्वर‑मिलन का मार्ग प्रशस्त होता है। “पानी तक पीऊं नाहीं, अन्न नहीं खाऊं मैं”—आत्मिक तपस्या का यह रूप शरीर की सीमा से परे जाकर भक्ति को साधना बना देता है।
हर क्षण कल्प‑समान लगना, भूख-प्यास का लोप, और दिन‑रात केवल उनके दर्शन की प्रतीक्षा—ये भाव सच्ची प्रेम‑भक्ति का प्रतीक हैं। यह विरह आत्मा की अग्नि है जो उसे शुद्ध करती है, और उसी अग्नि से ईश्वर‑मिलन का मार्ग प्रशस्त होता है। “पानी तक पीऊं नाहीं, अन्न नहीं खाऊं मैं”—आत्मिक तपस्या का यह रूप शरीर की सीमा से परे जाकर भक्ति को साधना बना देता है।
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Author - Saroj Jangir
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