राम बिनु तन को ताप न जाई भजन

राम बिनु तन को ताप न जाई भजन

राम बिनु तन को ताप न जाई।
जल में अगन रही अधिकाई॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम जलनिधि मैं जलकर मीना।
जल में रहहि जलहि बिनु जीना॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला।
कहै कबीर राम रमूं अकेला॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥


अनुश्री मिश्रा: राम बिनु तन को ताप न जाई [Anushri Mishra]

राम का नाम ही जीवन की शीतलता है। उनके बिना मन का ताप, जैसे जल में छुपी आग, और भड़कता है। मछली जल में रहकर भी जल के बिना जी नहीं सकती; वैसे ही आत्मा राम के बिना अधूरी है। जैसे तोता पिंजरे में अपने स्वामी के दर्शन को तरसता है, भक्त भी राम की एक झलक के लिए तड़पता है।

सद्गुरु और चेले का बंधन हो या प्रेमी का प्रीतम से मिलन, सबमें राम ही आधार हैं। कबीर की तरह, जो मन राम में रम जाता है, उसे अकेलापन नहीं सताता। जैसे सूरज की किरणें सर्दी को दूर करती हैं, वैसे ही राम का स्मरण हर ताप को शांत करता है। सच्चा भक्त वही, जो राम के प्रेम में डूबकर जीवन की हर जलन को भूल जाता है।

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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