अजब हैरान हूं भगवन तुम्हें कैसे रिझाऊं

अजब हैरान हूं भगवन तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं भजन

अजब हैरान हूं भगवन तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं,
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं,
करूं किस तौर आवाहन, कि तुम मौजूद हो हर जां,
निरादर है बुलाने को, अगर घंटी बजाऊं में,
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं,

तुम्हीं हो मूर्ति में भी, तुम्हीं व्यापक हो फूलों मैं,
भला भगवान पर भगवान को कैसे चढाऊं मैं,
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊंमैं,

लगाना भोग कुछ तुमको, एक अपमान करना है,
खिलाता है जो सब जग को, उसे कैसे खिलाऊं मैं,
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं,

तुम्हारी ज्योति से रोशन हैं, सूरज, चांद और तारे,
महा अंधेर है कैसे, तुम्हें दीपक दिखाऊं मैं
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं
भुजाएं हैं, न सीना है, न गर्दन, है न पेशानी,
कि हैं निर्लेप नारायण, कहां चंदन चढ़ाउं मैं
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं


अजब हैरान हूं भगवन तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं || बहुत सुंदर भजन ||

प्रभु, तुम सर्वत्र हो, फिर तुम्हें कैसे पुकारूं? मन असमंजस में डूबा है कि ऐसी कौन-सी भेंट चढ़ाऊं, जो तुम्हारे योग्य हो। कोई वस्तु नहीं, जो तुम में समाई न हो। फूल, मूर्ति, हवा, जल—सब में तुम ही बसे हो। एक साधक की तरह सोचता हूं, जैसे कोई दीया जलाकर सूरज को रोशनी दिखाए, वही मूर्खता है तुम्हें कुछ अर्पित करने की।

सच्चा मार्ग यही है कि मन को शुद्ध करूं, क्योंकि तुम्हें न घंटी की गूंज चाहिए, न चंदन की सुगंध। तुम तो उस हृदय में बसते हो, जो निस्वार्थ प्रेम से भरा हो। जैसे कोई मां बिना कुछ मांगे बच्चे के लिए सब कुछ कर देती है, वैसे ही तुम्हें केवल श्रद्धा का अर्पण चाहिए।

जो सबको जीवन देता है, उसे भोग लगाना कहां तक सही? सूरज की रोशनी से जगमगाते इस संसार में, तुम्हारी ज्योति को दीपक की क्या जरूरत? एक चिंतक की तरह विचार आता है—तुम्हें पाने का रास्ता बाहरी कर्मकांडों में नहीं, आत्मा की गहराई में है।

निर्गुण, निराकार हो तुम, न रूप, न रंग, न स्पर्श। फिर चंदन कहां लगाऊं? एक संत की तरह मन कहता है—प्रभु, तुम्हें केवल सच्चाई और प्रेम से ही पाया जा सकता है। अपने कर्मों को निर्मल करो, दूसरों के दुख में सहारा बनो, यही सच्ची पूजा है।

इसलिए, हे मन, व्यर्थ की उलझनों को छोड़। प्रभु को रिझाने का एकमात्र उपाय है—अपने भीतर की अहंता मिटाओ, प्रेम और करुणा को अपनाओ। यही वह भेंट है, जो प्रभु के चरणों में अर्पित की जा सकती है।

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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