राम चरित मानस अरण्य काण्ड-03
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा।।
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी।।
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रुप सुबिनीता।।
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।।
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।।
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।
दो0-करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात।।24।।
–*–*–
दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें।।
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी।।
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा।।
तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै।।
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।।
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं।।
भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई।।
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा।।
दो0-जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड।।25।।
–*–*–
जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी।।
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा।।
तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना।।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी।।
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना।।
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें।।
अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा।।
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही।।
छं0- निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं।।
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी।।
दो0-मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन।।26।।
तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ।।
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई।।
सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा।।
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला।।
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही।।
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन।।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा।।
प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई।।
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी।।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी।।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा।।
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई।।
प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी।।
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा।।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा।।
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा।।
अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना।।
दो0-बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ।।27।।
–*–*–
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा।।
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता।।
जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।।
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई।।
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू।।
सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा।।
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।।
सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा।।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई।।
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं।।
तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा।।
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा।।
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा।।
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना।।
दो0-क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ।।28।।
–*–*–
हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया।।
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक।।
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा।।
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।।
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा।।
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी।।
गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी।।
अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा।।
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे।।
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही।।
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना।।
की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई।।
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा।।
सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा।।
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू।।
राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा।।
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा।।
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।।
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही।।
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना।।
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी।।
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी।।
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता।।
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी।।
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ।।
दो0-हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ।।29(क)।।
नवान्हपारायण, छठा विश्राम
जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम।।29(ख)।।
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
raam charit maanas arany kaand
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला।।तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा।।
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी।।
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रुप सुबिनीता।।
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।।
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।।
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।
दो0-करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात।।24।।
–*–*–
दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें।।
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी।।
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा।।
तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै।।
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।।
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं।।
भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई।।
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा।।
दो0-जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड।।25।।
–*–*–
जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी।।
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा।।
तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना।।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी।।
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना।।
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें।।
अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा।।
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही।।
छं0- निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं।।
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी।।
दो0-मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन।।26।।
तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ।।
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई।।
सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा।।
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला।।
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही।।
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन।।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा।।
प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई।।
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी।।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी।।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा।।
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई।।
प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी।।
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा।।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा।।
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा।।
अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना।।
दो0-बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ।।27।।
–*–*–
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा।।
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता।।
जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।।
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई।।
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू।।
सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा।।
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।।
सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा।।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई।।
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं।।
तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा।।
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा।।
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा।।
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना।।
दो0-क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ।।28।।
–*–*–
हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया।।
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक।।
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा।।
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।।
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा।।
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी।।
गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी।।
अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा।।
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे।।
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही।।
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना।।
की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई।।
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा।।
सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा।।
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू।।
राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा।।
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा।।
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।।
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही।।
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना।।
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी।।
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी।।
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता।।
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी।।
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ।।
दो0-हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ।।29(क)।।
नवान्हपारायण, छठा विश्राम
जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम।।29(ख)।।