राम चरित मानस अरण्य काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में | raam charit maanas arany kaand

राम चरित मानस अरण्य काण्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
raam charit maanas arany kaand
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।।
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई।।
सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना।।
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं।।
संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा।।
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा।।
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।
दो0-बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम।।16।।
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भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा।।
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती।।
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।।
पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा।।
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।
रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई।।
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी।।
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं।।
ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी।।
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता।।
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी।।
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा।।
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा।।
सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी।।
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी।।
पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई।।
लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई।।
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयंकर प्रगटत भई।।
सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई।।
दो0-लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि।।17।।




नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा।।
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता।।
तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई।।
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा।।
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा।।
सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी।।
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी।।
गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं।।
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई।।
धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा।।
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटकु भयंकर।।
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी।।
देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा।।
छं0-कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों।।
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै।।
सो0-आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज।।18।।
प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी।।
सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन।।
नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते।।
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई।।
जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा।।
देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई।।
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु।।
दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई।।
हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं।।
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं।।
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक।।
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू।।
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई।।
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ।।
छं-उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा।।
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा।।
दो0-सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति।।19(क)।।
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर।।19(ख)।।




छं0-तब चले जान बबान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल।।
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम।।
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर।।
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ।।
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि।।
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार।।
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि।।
छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच।।
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन।।
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान।।
भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड।।
नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड।।
खग कंक काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल।।
छं0-कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं।।
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा।।
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं।।
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं।।
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे।।
सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं।।
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका।।
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी।।
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो।
देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो।।
दो0-राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान।।20(क)।।
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान।।20(ख)।।
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जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते।।
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए।
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता।।
पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक।।
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा।।
बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी।।
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती।।
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा।।
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ।।
संग ते जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा।।
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी।।
सो0-रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन।।21(क)।।
दो0-सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ।।21(ख)।।
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सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाहँ उठाई।।
कह लंकेस कहसि निज बाता। केँइँ तव नासा कान निपाता।।
अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए।।
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी।।
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन।।
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना।।
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता।।
सोभाधाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा।।
रुप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी।।
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा।।
खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा।।
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता।।
दो0-सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति।।22।।
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सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं।।
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।।
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।।
तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ।।
होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।
जौं नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ।।
चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ।।
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई।।
दो0-लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद।। 23।।
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