सुमिरि राम के गुन गन नाना उत्तर काण्ड

सुमिरि राम के गुन गन नाना उत्तर काण्ड

सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना।।
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई।।
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई।।
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ।।
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी।।
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी।।
सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी।।
दो0-जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।

कागभुसुंडि बार-बार उनके गुणों को याद कर हर्षित होते हैं। वेद "नेति-नेति" कहकर उनकी अतुलित शक्ति, प्रताप और प्रभुता को गाते हैं। शिव और ब्रह्मा तक उनके चरणों की पूजा करते हैं, और उनमें मेरे प्रति भी अपार कोमल कृपा है। ऐसा स्वभाव कहीं नहीं देखा-सुना, इसलिए राम की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। साधक, सिद्ध, मुक्त, उदासीन, कवि, विद्वान, कृतज्ञ, संन्यासी, योगी, वीर, तपस्वी, ज्ञानी, धर्मनिष्ठ, पंडित और वैज्ञानिक - कोई भी उनके बिना नहीं तर सकता। बार-बार राम को नमस्कार है। उनकी शरण में जाने वाले पापी भी पवित्र हो जाते हैं, ऐसे अविनाशी को मैं नमस्कार करता हूँ। उनका नाम ही संसार के दुखों और त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) का इलाज है।
 
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।124(क)।।
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह।।124(ख)।।

राम इतने कृपालु हैं कि वे मुझ पर हमेशा अनुकूल रहते हैं। कागभुसुंडि के सुंदर वचन सुनकर और राम के चरणों में उनका प्रेम देखकर, गरुड़ के मन से सारा संदेह मिट गया। इसके बाद गरुड़ प्रेम से भरी वाणी में बोले।

मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी।।
राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई।।
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए।।
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा।।
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ।।
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।
दो0-तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर।।125(क)।।
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।125(ख)।।

तुम्हारी वाणी सुनकर, जिसमें राम भक्ति का रस भरा था, मैं कृतार्थ हो गया। राम के चरणों में नया प्रेम जगा और माया से उत्पन्न सारी विपत्तियाँ मिट गईं। तुम मेरे लिए उस समुद्र से पार करने वाली नाव बने, जिसने मुझे कई सुख दिए। मैं तुम्हारा उपकार नहीं चुका सकता, इसलिए बार-बार तुम्हारे चरणों को प्रणाम करता हूँ। राम के प्रेमी का कोई काम अधूरा नहीं रहता, और तुमसे बड़ा भाग्यशाली कोई नहीं। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और धरती सब दूसरों के हित के लिए कार्य करते हैं। संतों का हृदय माखन जैसा कोमल होता है—कवियों ने कहा कि माखन अपने दर्द पर पिघलता है, पर संत दूसरों के दुख से पिघलते हैं। तुम्हारे प्रसाद से मेरा जीवन और जन्म सफल हुआ, सारे संदेह मिट गए। मुझे हमेशा अपना सेवक मानना, यह गरुड़ ने पार्वती से बार-बार कहा। फिर प्रेम और स्थिर मन से राम के चरणों में सिर झुकाकर, गरुड़ ने राम को हृदय में रखते हुए वैकुंठ की ओर प्रस्थान किया। संतों का संग ऐसा लाभ देता है, जो और कहीं नहीं मिलता, और यह हरि की कृपा के बिना संभव नहीं, जैसा वेद और पुराण गाते हैं।
 
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा।।
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा।।
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई।।
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।।
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना।।
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई।।
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई।।
दो0-मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास।।126।।
 
यह पवित्र इतिहास सुनने से कानों के जरिए संसार के बंधन छूट जाते हैं। राम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष और करुणा के भंडार हैं, जिनके चरणों में प्रेम उपजता है। मन, कर्म और वचन से हुए पाप इस कथा को श्रद्धा से सुनने पर नष्ट हो जाते हैं। तीर्थयात्रा, साधनाओं का समूह, योग, वैराग्य, ज्ञान की कुशलता, विभिन्न कर्म, धर्म, व्रत, दान, संयम, जप, तप, यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनम्रता और विवेक की महत्ता—वेदों में जितने भी साधन बताए गए हैं, उनका फल राम भक्ति है। यह भक्ति वेदों में गाई गई है और राम की कृपा से ही किसी को मिलती है। जो मनुष्य इस कथा को विश्वास के साथ लगातार सुनते हैं, वे बिना प्रयास के वह दुर्लभ भक्ति पा लेते हैं, जो मुनियों के लिए भी कठिन है।
 

सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता।।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता।।
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी।।
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।
दो0-सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।127।।

वही सर्वज्ञ, गुणी, ज्ञानी, पंडित और दानी है, जिसका मन राम के चरणों में रमता है। वही धर्मपरायण और कुल का रक्षक है। नीति में निपुण, समझदार और वेदों के सिद्धांतों को जानने वाला वही है। वही कवि, विद्वान और युद्ध में वीर है, जो बिना छल के राम को भजता है। वह देश धन्य है जहाँ गंगा बहती है; वह नारी धन्य है जो पतिव्रता है; वह राजा धन्य है जो नीति से चलता है; वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता। वह धन धन्य है जो सही काम में लगे; वह बुद्धि धन्य है जो पुण्य में रची हो। वह क्षण धन्य है जब संतों का संग मिले, और वह जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की भक्ति अटल हो। वह कुल धन्य है, जो विश्व में पूज्य और पवित्र है, जिसमें राम का भक्त और विनम्र पुरुष जन्म लेता है।
 
मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी।।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।।
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी।।
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई।।
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।
दो0-राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।।128।।

मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, जो पहले गुप्त थी, पर तुम्हारे मन में प्रेम देखकर मैंने रघुपति की कथा सुनाई। इसे मूर्ख, हठीले, लालची, क्रोधी, कामी या उसको नहीं कहना चाहिए, जो हरि की लीला में मन नहीं लगाता और विश्व के स्वामी को नहीं भजता। ब्राह्मणों से द्रोह करने वाले को कभी नहीं सुनाना चाहिए, चाहे वह इंद्र जैसा राजा ही क्यों न हो। राम कथा के अधिकारी वही हैं, जिन्हें संतों का संग बहुत प्रिय है, जो गुरु के चरणों में प्रेम और नीति में रत हैं, और ब्राह्मणों की सेवा करते हैं। यह कथा उसे विशेष सुख देती है, जिसे राम प्राणों से प्यारे हैं। जो राम के चरणों में प्रेम या मोक्ष चाहता है, उसे यह कथा भाव के साथ कानों से पीना चाहिए।

उत्तर कांड : रामायण का अंतिम भाग यानि उत्तरकाण्ड में कुल एक सौ ग्यारह सर्ग तथा तीन हजार चार सौ बत्तीस श्लोकों से युक्त है । उत्तरकाण्ड में रावण के पितामह, रावण के पराक्रम की चर्चा, सीता का पूर्वजन्म, देवी वेदवती को रावण का श्राप, रावण-बालि का युद्ध, सीता का त्याग, सीता का वाल्मीकि आश्रम में आगमन, लवणासुर वध, अश्वमेध यज्ञ का वर्णन भी विस्तार से किया गया है।
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