राम चरित मानस अयोध्या काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में | raam charit maanas ayodhya kaand

राम चरित मानस अयोध्या काण्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
raam charit maanas ayodhya kaand


कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती।।
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई।।
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें।।
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।।
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं।।
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे।।
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं।।
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी।।
दो0-सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात।।311।।
–*–*–
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं।।
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा।।
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी।।
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ।।
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा।।
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई।।
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा।।
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई।।
दो0-देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ।।312।।
–*–*–
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू।।
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं।।
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी।।
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची।।
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी।।
करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी।।
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू।।
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई।।
दो0-जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल।।313।।
–*–*–
पुरजन परिजन प्रजा गोसाई। सब सुचि सरस सनेहँ सगाई।।
राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू।।
स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की।।
प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू।।
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो।।
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू।।
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी।।
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी।।
दो0-दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन।।314।।
–*–*–
तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की।।
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू।।
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु।।
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई।।
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें।।
अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई।।
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू।।
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।।
दो0-मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक।।315।।
–*–*–
राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई।।
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती।।
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू।।
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं।।
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के।।
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के।।
कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के।।
भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें।।
दो0-मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ।।316।।
–*–*–
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की।।
नतरु लखन सिय सम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा।।
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु कहि न परत सो।।
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा।।
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी।।
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से।।
जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए।।
दो0-तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार।।317।।
–*–*–
जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी।।
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू।।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी।।
भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए।।
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई।।
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा।।
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई।।
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी।।
दो0-लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि।।318।।
–*–*–
सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई।।
देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ।।
पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा।।
मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने।।
सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई।।
कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली।।
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा।।
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे।।
दो0-भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि।।319।।
–*–*–
परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता।।
करि प्रनामु भेंटी सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू।।
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई।।
रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई।।
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई।।
साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना।।
हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता।।
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें।।
दो0-गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत।।320।।
–*–*–
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू।।
कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी।।
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं।।
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी।।
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी।।
तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना।।
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो।।
दो0-सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर।।321।।
–*–*–
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।।
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं।।
जमुना उतरि पार सबु भयऊ। सो बासरु बिनु भोजन गयऊ।।
उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू।।
सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी।।
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू।।
नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी।।
दो0-राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस।।322।।
–*–*–
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे।।
पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई।।
भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे।।
ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू।।
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए।।
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी।।
आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा।।
समुझव कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई।।
दो0-सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि।।323।।
–*–*–
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई।।
नंदिगावँ करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा।।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी।।
असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा।।
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी।।
अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई।।
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा।।
रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी।।
दो0-राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति।।324।।
–*–*–

एक टिप्पणी भेजें