बाल कान्ड-9 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Bal Kand in Hindi

 राम चरित मानस बाल कान्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
Ram Charit Manas Bal Kank in Hindi
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके।।
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा।।
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना।।
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।।
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी।।
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई।।
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई।।
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी।।
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार।।129।।
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बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी।।
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा।।
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा।।
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी।।
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी।।
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला।।
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ।।
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए।।
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि।।130।।



देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी।।
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने।।
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई।।
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही।।
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे।।
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं।।
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल।।131।।
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हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई।।
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ।।
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला।।
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने।।
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई।।
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही।।
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा।।
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला।।
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार।।132।।
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कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।।
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा।।
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई।।
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा।।
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें।।
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।।
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा।।

दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ।।133।।



जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई।।
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ।।
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई।।
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी।।
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ।।
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी।।
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा।।
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।।
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल।।134।।
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जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली।।
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं।।
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला।।
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा।।
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।।
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई।।
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी।।
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।।135।।
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पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा।।
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं।।
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई।।
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी।।
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं।।
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा।।
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु।।
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु।।136।।
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परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई।।
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू।।
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू।।
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा।।
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।।
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।।
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि।।137।।



जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी।।
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना।।
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।।
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे।।
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा।।
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें।।
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई।।
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान।।
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान।।138।।
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हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी।।
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए।।
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया।।
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला।।
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ।।
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा।।
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई।।
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार।।139।।
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