मीरा बाई जीवन परिचय
मीरा बाई जीवन परिचय
मीराबाई, जिन्हें भक्ति काव्य की अनन्य उपासिका माना जाता है, एक ऐसी संत कवयित्री थीं जिनका जीवन कृष्ण भक्ति और प्रेम की अमर गाथा है। उनका जन्म संवत् 1555 (लगभग 1498 ई.) में राजस्थान के मेड़ता (मारवाड़) के पास कुड़की गाँव में हुआ था। वे राठौड़ वंश की राजकुमारी थीं, जिनके पिता रतन सिंह और दादा राव दूदा राठौड़ थे। बचपन से ही मीराबाई का मन कृष्ण की भक्ति में रम गया। एक कथा के अनुसार, उनकी माँ ने उन्हें कृष्ण की मूर्ति दी थी, जिसे मीरा ने अपना जीवनसाथी मान लिया। यह भक्ति ही उनके जीवन का आधार बनी।
मीराबाई का विवाह संवत् 1573 (1516 ई.) में मेवाड़ के राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। परंतु विवाह के कुछ वर्षों बाद भोजराज का निधन हो गया, जिसके बाद मीरा की भक्ति और गहरी हो गई। ससुराल में उन्हें सामाजिक और पारिवारिक बंधनों का सामना करना पड़ा। सास, ननद और रिश्तेदार उनकी भक्ति को पागलपन और कुल की मर्यादा के विरुद्ध मानते थे। यहाँ तक कि उनके भक्ति मार्ग को रोकने के लिए कई प्रयास हुए, जैसे विष का प्याला भेजना, पर मीरा का प्रभु-प्रेम अडिग रहा। वे इन कष्टों को हँसकर स्वीकार करती थीं, क्योंकि उनके लिए कृष्ण ही सब कुछ थे।
मीराबाई ने सांसारिक बंधनों को त्यागकर संतों की संगति में समय बिताया और भक्ति के पद रचे। उनकी रचनाएँ, जो ब्रजभाषा, राजस्थानी और गुजराती मिश्रित हैं, सगुण भक्ति की माधुर्य शाखा को समृद्ध करती हैं। “म्हारों री गिरधर गोपाल” और “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो” जैसे उनके पद प्रेम और समर्पण की अनुपम मिसाल हैं। वे कृष्ण को अपने पति और प्रियतम मानकर राधा की तरह प्रेम-भाव से गीत गाती थीं। उनकी भक्ति में लोक-लाज और कुल की मर्यादा का कोई स्थान नहीं था, जिसके कारण उन्हें समाज और परिवार का तिरस्कार सहना पड़ा। फिर भी, वे अपने मार्ग पर अटल रहीं।
जीवन के अंतिम वर्षों में मीराबाई तीर्थयात्रा पर निकलीं और वृंदावन, मथुरा, और अंत में द्वारका पहुँचीं। ऐसा माना जाता है कि संवत् 1604 (1547 ई.) में द्वारका के रणछोड़ मंदिर में वे कृष्ण की मूर्ति में समा गईं। मीराबाई का जीवन और साहित्य आज भी भक्ति आंदोलन की प्रेरणा है। उनकी रचनाएँ संगीत और भक्ति का अनूठा संगम हैं, जो न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में भक्तों के हृदय को प्रभु-प्रेम से सराबोर करती हैं। मीरा की भक्ति एक ऐसी ज्योति है, जो सामाजिक बंधनों को तोड़कर प्रेम और समर्पण का मार्ग प्रशस्त करती है।
इनके मन में बचपन से ही कृष्ण-भक्ति की भावना जन्म ले चुकी थी। इसलिए वे कृष्ण को अपना आराध्य और पति मानती रहीं।
इन्होंने देश में दूर-दूर तक यात्राएँ कीं। चित्तौड़ राजघराने में अनेक कष्ट उठाने के बाद ये वापस मेड़ता आ गई। यहाँ से उन्होंने कृष्ण की लीला भूमि वृंदावन की यात्रा की। जीवन के अंतिम दिनों में वे द्वारका चली गई। माना जाता है कि वहीं रणछोड़ दास जी की मंदिर की मूर्ति में वे समाहित हो गई। इनका देहावसान 1546 ई. में माना जाता है।
विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हे देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल पुथल का समय रहा है।
रचनाएँ-मीरा ने मुख्यत: स्फुट पदों की रचना की। ये पद
‘मीराबाई की पदावली’ के नाम से संकलित हैं। दूसरी रचना नरसीजी-रो-माहेरो है। साहित्यिक विशेषताएँ-मीरा सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री थीं। कृष्ण की उपासिका होने के कारण इनकी कविता में सगुण भक्ति मुख्य रूप से मौजूद है, लेकिन निर्गुण भक्ति का प्रभाव भी मिलता है। संत कवि रैदास उनके गुरु माने जाते हैं। इन्होंने लोकलाज और कुल की मर्यादा के नाम पर लगाए गए सामाजिक और वैचारिक बंधनों का हमेशा – विरोध किया। इन्होंने पर्दा प्रथा का पालन नहीं किया तथा मंदिर में सार्वजनिक रूप से नाचने-गाने में कभी हिचक महसूस नहीं की। मीरा सत्संग को ज्ञान प्राप्ति का माध्यम मानती थीं और ज्ञान को मुक्ति का साधन। निंदा से वे कभी विचलित नहीं हुई। वे उस युग के रूढ़िग्रस्त समाज में स्त्री-मुक्ति की आवाज बनकर उभरी।
मीरा बाई अकसर मंदिर में लोगो के बीच भगवान कृष्ण के प्रतिमा के सामने भजन गायन एवं नृत्य करने लगाती थी | मीरा बाई के द्वारा कृष्ण भक्ति में इस प्रकार का नाचना एवं गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था, इनके द्वारा मीरा के इस कार्य पर विरोध भी किया जाता था पर इनके इस विरोध का मीरा पर कोई असर नहीं पड़ता | सभी कोशिसो से नाकाम घर वाले इन्हें विष देकर मारने का भी प्रयत्न किया परन्तु इन प्रयत्नों में भी ये विफल रहे | परिवार वालो के द्वारा किए जा रहे व्यवहार से मीरा परेशान हो कर द्वारका और वृंदावन चली गई | इस समय ये जहा जाते लोगो के द्वारा इनके काफी सम्मान एवं प्रेम मिलता था | माना जाता है मीराबाई ने तुलसीदास जी को पत्र लिखा था कि उनके घर वाले उन्हें कृष्ण की भक्ति नहीं करने देते। श्रीकृष्ण को पाने के लिए मीराबाई ने अपने गुरु तुलसीदास से उपाय मांगा। तुलसी दास के कहने पर मीरा ने कृष्ण के साथ ही रामभक्ति के भजन लिखे। जिसमें सबसे प्रसिद्ध भजन है “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो”।मीरा बाई ने जीवनभर भगवान कृष्ण की भक्ती की और कहा जाता है कि उनकी मृत्यु भी भगवान की मूर्ति में समा कर की हुई थी। कहीं-कहीं इतिहास में ये मिलता है कि मीरा बाई ने तुलसीदास को गुरु बनाकर रामभक्ति भी की। कृष्ण भक्त मीरा ने राम भजन भी लिखे हैं। हालांकि इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है लेकिन कुछ इतिहासकार ये मानते हैं कि मीराबाई और तुलसीदास के बीच पत्रों के जरिए संवाद हुआ था। मीरा बाई के मृत्यु का साक्ष्य किसी को भी नहीं प्राप्त हुआ है | कहा जाता है की लम्बे समय तक वृंदावन में रहने के उपरांत मीरा बाई द्वारिका चली गई वह उन्होंने सन 1560 को भगवान कृष्ण के प्रतिमा में समा गई |
भाषा-शैली-मीरा की कविता में प्रेम की गंभीर अभिव्यंजना है। उसमें विरह की वेदना है और मिलन का उल्लास भी। इनकी कविता में सादगी व सरलता है। इन्होंने मुक्तक गेय पदों की रचना की। उनके पद लोक व शास्त्रीय संगीत दोनों क्षेत्रों में आज भी लोकप्रिय हैं। इनकी भाषा मूलत: राजस्थानी है तथा कहीं-कहीं ब्रजभाषा का प्रभाव है। कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा पर सूफियों के प्रभाव को भी देखा जा सकता है।
मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की--
नरसी का मायरा
गीत गोविंद टीका
राग गोविंद
राग सोरठ के पद
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीरांबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मथुराके कान मोही मोही मोही ॥ध्रु०॥
खांदे कामरीया हातमों लकरीया । सीर पाग लाल लोई लोई ॥१॥
पाउपें पैंजण आण वट बीचवे । चाल चलत ताता थै थै थै ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । हृदय बसत प्रभू तुही तुही तुही तुही ॥३॥
मोरी लागी लटक गुरु चरणकी ॥ध्रु०॥
चरन बिना मुज कछु नही भावे । झूंठ माया सब सपनकी ॥१॥
भवसागर सब सुख गयी है । फिकीर नही मुज तरुणोनकी ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । उलट भयी मोरे नयननकी ॥३॥
राधे तोरे नयनमों जदुबीर ॥ध्रु०॥
आदी आदी रातमों बाल चमके । झीरमीर बरसत नीर ॥१॥
मोर मुगुट पितांबर शोभे । कुंडल झलकत हीर ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल शीर ॥३॥
राधे देवो बांसरी मोरी । मुरली हमारी ॥ध्रु०॥
पान पात सब ब्रिंदावन धुंडयो । कुंजगलीनमों सब हेरी ॥१॥
बांसरी बिन मोहे कल न परहे । पया लागत तोरी ॥२॥
काहेसुं गावूं काहेंसुं बजाऊं । काहेसुं लाऊं गवा घहेरी ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकी मैं तो चित्त चोरी ॥४॥
रंगेलो राणो कई करसो मारो राज्य ।
हूं तो छांडी छांडी कुलनी लाज ॥ध्रु०॥
पग बांधीनें घुंगरा हातमों छीनी सतार ।
आपने ठाकूरजीके मंदिर नाचुं वो हरी जागे दिनानाथ
बिखको प्यालो राणाजीने भेजो कैं दिजे मिराबाई हात ।
कर चरणामृत पीगई मीराबाई ठाकुरको प्रसाद ॥ रंगेलो० ॥२॥
सापरो पेटारो राणाजीनें भेजों दासाजीने हात ।
सापरो उपाडीनें गलामों डारयो हो गयो चंदन हार ।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तूं मारो भरतार ॥ रंगेलो० ॥३॥
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