दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
जल कैशी भरुं जमुना भयेरी ॥ध्रु०॥
खडी भरुं तो कृष्ण दिखत है । बैठ भरुं तो भीजे चुनडी ॥१॥
मोर मुगुटअ पीतांबर शोभे । छुम छुम बाजत मुरली ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चणरकमलकी मैं जेरी ॥३॥
भज मन शंकर भोलानाथ भज मन ॥ध्रु०॥
अंग विभूत सबही शोभा । ऊपर फुलनकी बास ॥१॥
एकहि लोटाभर जल चावल । चाहत ऊपर बेलकी पात ॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर । पूजा करले समजे आपहि आप ॥३॥
मदन गोपाल नंदजीको लाल प्रभुजी ॥ध्रु०॥
बालपनकी प्रीत बिखायो । नवनीत धरियो नंदलाल ॥१॥
कुब्जा हीनकी तुम पत राखो । हम ब्रीज नारी भई बेहाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । हम जपे यही जपमाल ॥३॥
मनुवा बाबारे सुमरले मन सिताराम ॥ध्रु०॥
बडे बडे भूपती सुलतान उनके । डेरे भय मैदान ॥१॥
लंकाके रावण कालने खाया । तूं क्या है कंगाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर लाल । भज गोपाल त्यज जंजाल ॥३॥
मन केरो जेवो चंद्र छे । रास रमे नंद लालो रे ॥ध्रु०॥
नटवर बेश धर्यो नंद लाले । सौ ओघाने चालोरे ॥१॥
गानतान वाजिंत्र बाजे । नाचे जशोदानो काळोरे ॥२॥
सोळा सहस्त्र अष्ट पटराणी । बच्चे रह्यो मारो बहालोरे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । रणछोडे दिसे छोगळोरे ॥४॥
खडी भरुं तो कृष्ण दिखत है । बैठ भरुं तो भीजे चुनडी ॥१॥
मोर मुगुटअ पीतांबर शोभे । छुम छुम बाजत मुरली ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चणरकमलकी मैं जेरी ॥३॥
भज मन शंकर भोलानाथ भज मन ॥ध्रु०॥
अंग विभूत सबही शोभा । ऊपर फुलनकी बास ॥१॥
एकहि लोटाभर जल चावल । चाहत ऊपर बेलकी पात ॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर । पूजा करले समजे आपहि आप ॥३॥
मदन गोपाल नंदजीको लाल प्रभुजी ॥ध्रु०॥
बालपनकी प्रीत बिखायो । नवनीत धरियो नंदलाल ॥१॥
कुब्जा हीनकी तुम पत राखो । हम ब्रीज नारी भई बेहाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । हम जपे यही जपमाल ॥३॥
मनुवा बाबारे सुमरले मन सिताराम ॥ध्रु०॥
बडे बडे भूपती सुलतान उनके । डेरे भय मैदान ॥१॥
लंकाके रावण कालने खाया । तूं क्या है कंगाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर लाल । भज गोपाल त्यज जंजाल ॥३॥
मन केरो जेवो चंद्र छे । रास रमे नंद लालो रे ॥ध्रु०॥
नटवर बेश धर्यो नंद लाले । सौ ओघाने चालोरे ॥१॥
गानतान वाजिंत्र बाजे । नाचे जशोदानो काळोरे ॥२॥
सोळा सहस्त्र अष्ट पटराणी । बच्चे रह्यो मारो बहालोरे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । रणछोडे दिसे छोगळोरे ॥४॥
प्रस्तुत
पंक्तियों में मीरा के कृष्ण-प्रेम की तुलना मक्खन से की गई है| जिस
प्रकार दही को मथकर मक्खन निकाला जाता है और शेष बचे छाछ को छोड़ दिया जाता
है| उसी प्रकार मीरा ने भी संसार का चिंतन-मनन करके कृष्ण-प्रेम को प्राप्त
किया है और व्यर्थ के सांसारिक मोह को त्याग दिया है|