दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोयी मीरा

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोयी मीरा बाई पदावली

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी 
 
जल कैशी भरुं जमुना भयेरी ॥ध्रु०॥
खडी भरुं तो कृष्ण दिखत है । बैठ भरुं तो भीजे चुनडी ॥१॥
मोर मुगुटअ पीतांबर शोभे । छुम छुम बाजत मुरली ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चणरकमलकी मैं जेरी ॥३॥

मीरा बाई इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति गहन प्रेम और भक्ति को व्यक्त करती हैं। वह यमुना नदी से जल भरने जाती हैं, लेकिन खड़ी होकर जल भरने पर उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं, और बैठकर भरने पर उनकी चुनरी भीग जाती है। श्रीकृष्ण के मोर मुकुट और पीतांबर की शोभा, उनकी मुरली की मधुर ध्वनि, मीरा के मन को मोहित कर लेती है। अंत में, मीरा स्वयं को गिरिधर नागर के चरणों की दासी मानती हैं, जो उनके समर्पण और भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है।

प्रभु के प्रति गहन प्रेम और भक्ति का भाव इस भजन में गूंजता है। दही को प्रेम से मथकर घी निकालना और छाछ को त्याग देना उस भक्ति की प्रक्रिया को दर्शाता है, जिसमें मन सांसारिक मोह को मथकर प्रभु-प्रेम का सार पा लेता है। जैसे कोई मेहनत से दही मथता है, वैसे ही भक्त का हृदय प्रभु की भक्ति में तल्लीन होकर जीवन का सच्चा रस प्राप्त करता है। यमुना तट पर जल भरने की बात प्रभु की स्मृति में डूबे मन की व्याकुलता को उजागर करती है—कृष्ण हर पल सामने दिखते हैं, जिससे मन विचलित हो उठता है। खड़े होकर जल भरें तो उनकी छवि मन को बांध लेती है, और बैठें तो प्रेम में भीगकर आत्मा रंग जाती है। कृष्ण की शोभा—मोर मुकुट, पीतांबर, और मुरली की छम-छम—हृदय में प्रभु की लीलाओं को जीवंत करती है। उदाहरण के लिए, जैसे यमुना का जल लहरों में नाचता है, वैसे ही भक्त का मन प्रभु की मुरली की धुन में झूमता है। प्रभु के चरणों में शरण लेने का भाव ही जीवन को सार्थक बनाता है, जहाँ आत्मा उनकी भक्ति में लीन होकर अनंत आनंद पाती है।
 
भज मन शंकर भोलानाथ भज मन ॥ध्रु०॥
अंग विभूत सबही शोभा । ऊपर फुलनकी बास ॥१॥
एकहि लोटाभर जल चावल । चाहत ऊपर बेलकी पात ॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर । पूजा करले समजे आपहि आप ॥३॥

मदन गोपाल नंदजीको लाल प्रभुजी ॥ध्रु०॥
बालपनकी प्रीत बिखायो । नवनीत धरियो नंदलाल ॥१॥
कुब्जा हीनकी तुम पत राखो । हम ब्रीज नारी भई बेहाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । हम जपे यही जपमाल ॥३॥

मनुवा बाबारे सुमरले मन सिताराम ॥ध्रु०॥
बडे बडे भूपती सुलतान उनके । डेरे भय मैदान ॥१॥
लंकाके रावण कालने खाया । तूं क्या है कंगाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर लाल । भज गोपाल त्यज जंजाल ॥३॥

मन केरो जेवो चंद्र छे । रास रमे नंद लालो रे ॥ध्रु०॥
नटवर बेश धर्यो नंद लाले । सौ ओघाने चालोरे ॥१॥
गानतान वाजिंत्र बाजे । नाचे जशोदानो काळोरे ॥२॥
सोळा सहस्त्र अष्ट पटराणी । बच्चे रह्यो मारो बहालोरे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । रणछोडे दिसे छोगळोरे ॥४॥
 
 प्रस्तुत पंक्तियों में मीरा के कृष्ण-प्रेम की तुलना मक्खन से की गई है| जिस प्रकार दही को मथकर मक्खन निकाला जाता है और शेष बचे छाछ को छोड़ दिया जाता है| उसी प्रकार मीरा ने भी संसार का चिंतन-मनन करके कृष्ण-प्रेम को प्राप्त किया है और व्यर्थ के सांसारिक मोह को त्याग दिया है|
 
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