श्रीपार्श्वनाथ आरती
श्रीपार्श्वनाथ आरती
आरती – श्रीपार्श्वनाथ जी कीऊँ जय पारस देवा स्वामी जय पारस देवा |
सुर नर मुनिजन तुम चरणन की करते नित सेवा | ऊँ जय0
पौष वदी ग्यारस काशी में आनन्द अति भारी, स्वामी आनन्द0
अश्वसेन वामा माता उर लीनों अवतारी || ऊँ जय0
श्याम वरण नवहस्त काय पग-उरग लखन सोहैं, स्वामी उरग0
सुरकृत अति अनुपम पा भूषण सबका मन मोहैं || ऊँ जय0
जलते देख नाग-नागिन को मंत्र नवकार दिया, स्वामी मंत्र0
हरा कमठ का मान ज्ञान का भानु प्रकाश किया | ऊँ जय0
मात पिता तुम स्वामी मेरे, आस करुं किसकी, स्वामी आस0
तुम बिन दाता और न कोई शरण गहूं जिसकी || ऊँ जय0
तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अन्तर्यामी, स्वामी तुम0
स्वर्ग मोक्ष के दाता तुम हो त्रिभुवन के स्वामी || ऊँ जय0
दीनबन्धु दुःख हरण जिनेश्वर, तुमही हो मेरे, स्वामी तुम0
दो शिवधाम को वास दास, हम द्वार खड़े तेरे || ऊँ जय0
विपद विकार मिटाओ मन का, अर्ज सुनो दाता, स्वामी अर्ज सुनो दाता |
सेवक द्वै कर जोड़ प्रभु के चरणो चित लाता || ऊँ जय0
ओं जय पारस देवा स्वामी जय पारस देवा !
सुर नर मुनिजन तुम चरणन की करते नित सेवा |
पौष वदी ग्यारस काशी में आनंद अतिभारी,
अश्वसेन वामा माता उर लीनों अवतारी | ओं जय..
श्यामवरण नवहस्त काय पग उरग लखन सोहैं,
सुरकृत अति अनुपम पा भूषण सबका मन मोहैं | ओं जय..
जलते देख नाग नागिन को मंत्र नवकार दिया,
हरा कमठ का मान, ज्ञान का भानु प्रकाश किया | ओं जय..
मात पिता तुम स्वामी मेरे, आस करूँ किसकी,
तुम बिन दाता और न कोर्इ, शरण गहूँ जिसकी | ओं जय..
तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अंतर्यामी,
स्वर्ग-मोक्ष के दाता तुम हो, त्रिभुवन के स्वामी | ओं जय..
दीनबंधु दु:खहरण जिनेश्वर, तुम ही हो मेरे,
दो शिवधाम को वास दास, हम द्वार खड़े तेरे | ओं जय..
विपद-विकार मिटाओ मन का, अर्ज सुनो दाता,
सेवक द्वै-कर जोड़ प्रभु के, चरणों चित लाता | ओं जय..
सुर नर मुनिजन तुम चरणन की करते नित सेवा |
पौष वदी ग्यारस काशी में आनंद अतिभारी,
अश्वसेन वामा माता उर लीनों अवतारी | ओं जय..
श्यामवरण नवहस्त काय पग उरग लखन सोहैं,
सुरकृत अति अनुपम पा भूषण सबका मन मोहैं | ओं जय..
जलते देख नाग नागिन को मंत्र नवकार दिया,
हरा कमठ का मान, ज्ञान का भानु प्रकाश किया | ओं जय..
मात पिता तुम स्वामी मेरे, आस करूँ किसकी,
तुम बिन दाता और न कोर्इ, शरण गहूँ जिसकी | ओं जय..
तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अंतर्यामी,
स्वर्ग-मोक्ष के दाता तुम हो, त्रिभुवन के स्वामी | ओं जय..
दीनबंधु दु:खहरण जिनेश्वर, तुम ही हो मेरे,
दो शिवधाम को वास दास, हम द्वार खड़े तेरे | ओं जय..
विपद-विकार मिटाओ मन का, अर्ज सुनो दाता,
सेवक द्वै-कर जोड़ प्रभु के, चरणों चित लाता | ओं जय..
सुन्दर भजन में श्रीपार्श्वनाथजी की दिव्यता और करुणा की गाथा जीवंत हो उठती है। वे न केवल देवताओं, मनुष्यों और मुनियों के पूज्य हैं, बल्कि उनके चरणों की सेवा में समर्पित होना जीवन का सर्वोच्च सौभाग्य माना जाता है। काशी के पावन माह में उनका अवतरण अश्वसेन वामा माता के गर्भ से हुआ, जो उनके दिव्य जन्म की महत्ता को दर्शाता है। उनका रूप श्याम वर्ण, नवहस्त और नवांगुलीय है, जो सौंदर्य और आध्यात्मिकता का अद्भुत मेल प्रस्तुत करता है। उनके पग और उरग के भूषण मन को मोह लेते हैं, जो उनकी अलौकिक शक्ति और आकर्षण का परिचायक हैं।
श्रीपार्श्वनाथजी ने नाग-नागिन को मंत्र नवकार दिया, जो अज्ञानता और भय को दूर कर ज्ञान और प्रकाश का संचार करता है। हरा कमठ का मान भी उनके ज्ञान के प्रकाश के सामने नतमस्तक हो जाता है। ऐसे देवता ही जीवन के मार्गदर्शक होते हैं, जिन पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है, क्योंकि वे दाता, शरण और परमात्मा के रूप में सर्वव्यापी हैं।
उनकी उपस्थिति से मनुष्य के मन के विकार और विपत्तियाँ दूर होती हैं। जब मन में संकट आता है, तब उनकी शरण में जाकर मन की शांति और समाधान मिलता है। उनके प्रति समर्पण और सेवा से ही मनुष्य अपने जीवन को संतुलित और सफल बना सकता है। वे त्रिभुवन के स्वामी हैं, जो न केवल सांसारिक जीवन में, बल्कि मोक्ष के मार्ग में भी सहायता करते हैं।
श्रीपार्श्वनाथजी ने नाग-नागिन को मंत्र नवकार दिया, जो अज्ञानता और भय को दूर कर ज्ञान और प्रकाश का संचार करता है। हरा कमठ का मान भी उनके ज्ञान के प्रकाश के सामने नतमस्तक हो जाता है। ऐसे देवता ही जीवन के मार्गदर्शक होते हैं, जिन पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है, क्योंकि वे दाता, शरण और परमात्मा के रूप में सर्वव्यापी हैं।
उनकी उपस्थिति से मनुष्य के मन के विकार और विपत्तियाँ दूर होती हैं। जब मन में संकट आता है, तब उनकी शरण में जाकर मन की शांति और समाधान मिलता है। उनके प्रति समर्पण और सेवा से ही मनुष्य अपने जीवन को संतुलित और सफल बना सकता है। वे त्रिभुवन के स्वामी हैं, जो न केवल सांसारिक जीवन में, बल्कि मोक्ष के मार्ग में भी सहायता करते हैं।