कभी मेरे घर भी आओ
कभी मेरे घर भी आओ
लागि दर्शन की अभिलाषा मेरे मन में बड़ी,
कभी मेरे घर भी आओ आके सुख दुःख के बतलाओ,
मात मोरवी के लाला हो दीं दयालु दाता,
मैंने सुना भक्तो के आंसू देख नहीं तू पाता,
तेरे होते मैं रोऊ ना जागे और न सोउ,
इस ज़िंदगी ने खो रहे चिंता घनी,
लागि दर्शन की अभिलाषा मेरे मन में बड़ी,
कभी मेरे घर भी आओ आके सुख दुःख के बतलाओ,
इस दुनिया को देख देख क्या तू भी रंग बदल गया,
खा खा छप्पन भोग तेरा भी रंग ढंग बदल गया,
मेरे घर रूखी सुखी पावे तू इसी लिए न आवे,
कदे भूखा ही रह जावे खावे सवा मणि,
लागि दर्शन की अभिलाषा मेरे मन में बड़ी,
कभी मेरे घर भी आओ आके सुख दुःख के बतलाओ,
इक बार तू आकर देखो भाव का भोग लगाऊ,
कमी नहीं माखन मिश्री की रज रज तुम्हे खिलाऊ,
करू ऐसी खातिर दारी ना भूले गा धीरधारी,
भावना देविंदर की यारी सँवारे रहे गी बने,
लागि दर्शन की अभिलाषा मेरे मन में बड़ी,
कभी मेरे घर भी आओ आके सुख दुःख के बतलाओ,
सुंदर भजन में भक्त की गहन पुकार और श्रीकृष्णजी के दर्शन की तीव्र अभिलाषा प्रदर्शित की गई है। यह अनुभूति बताती है कि जब भक्त ईश्वर से जुड़ने की चाह रखता है, तब वह अपने सुख-दुःख, आशाएँ और समर्पण को उनके चरणों में अर्पित करने के लिए व्याकुल हो उठता है।
श्रद्धा की यह गहराई दर्शाती है कि भक्ति केवल बाह्य पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह वह भाव है जहाँ भक्त अपने आराध्य को अपने घर बुलाने की विनती करता है। उसका प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि वह भगवान के आगमन की प्रतीक्षा में जीवन की हर कठिनाई को सहने के लिए तैयार रहता है।
भक्त अपने प्रेम की निश्छलता में यह कहता है कि उसके पास छप्पन भोग की विलासिता नहीं, किंतु उसका समर्पण इतना निर्मल है कि वह भाव से श्रीकृष्णजी को प्रसन्न करने की आकांक्षा रखता है। यह भक्ति का वह रूप है, जहाँ बाहरी संपन्नता गौण हो जाती है, और केवल प्रेम ही सर्वोच्च स्थान लेता है।