काया झुपड़ी रे म्हारी भोली टपली भजन
काया झुपड़ी रे म्हारी भोली टपली भजन
काया झुपड़ी रे म्हारी भोली टपलीरँगीली म्हारी काया झोपड़ी
रँगीली म्हारी काया झोपड़ी डीग मत जाइयो ना
काया झोपड़ी रे म्हारी भोळी टापली डीग मत जाइयो ना ।।
नो दस मास झुपा बनता ने लाग्या ये
काया रो कारीगर थान अजब धड़ी डीग मत जइयो ना ।।
रँगीली म्हारी
हरि के भजन से झुंपा न्यारी मत होइयेना
प्रभु के भजे से तेरी काया सुधरी डीग मत जइयो ना ।।
रँगीली म्हारी
दूधा दहिया से झुंपा तन तो सिंचाई ये
धीरत सिंचायो तन एक सिंगड़ी डीग मत जाइयो ना ।।
रँगीली म्हारी
अब म्हारी झुंपा तू तो भई रे पुराणी
हाथा में ले ली तू तो लाकड़ी डीग मत जाइयो ना ।।
रँगीली म्हारी
अब म्हारी झुंपा तू तो लुलबा ने लागी ये
कोई ये न बैठे थारी छाया छावली डीग मत जाइयो ना ।।
रँगीली म्हारी
चलना पड़ेगा झुंपा यहाँ नही रहणा ये
चलती बेला में थारो राम धणी डीग मत जाइयो ना ।।
रँगीली म्हारी
कहत कबीरा सुणो भाई साधो
ऐसी तो काची काया अजब धड़ी डीग मत जाइयो ना ।।
रँगीली म्हारी काया झोपड़ी डीग मत जाइयो ना
काया झोपड़ी रे म्हारी भोळी टापली डीग मत जाइयो ना ।।
सुंदर भजन में इस काया की नश्वरता और भक्ति के महत्व का गहन उद्गार व्यक्त होता है। यह काया एक झुपड़ी-सी है, रंग-बिरंगी, भोली, पर क्षणभंगुर, जैसे मिट्टी का घड़ा जो देर-सवेर टूट जाता है। भक्त इस काया को छल-माया में भटकने से रोकता है, मानो किसी प्रिय को गलत राह पर जाने से बचाता हो।
नौ-दस मास में बनी यह काया ईश्वर की अनुपम कारीगरी है, पर यह स्थायी नहीं। जैसे कोई कारीगर मेहनत से झोपड़ी बनाता है, वही समय के साथ जर्जर हो जाती है। इस काया को हरि के भजन से संवारने की सीख है, क्योंकि प्रभु का स्मरण ही इसे सार्थक बनाता है। जैसे सूरज की किरणें फूल को खिलाती हैं, वैसे ही भक्ति काया को शुद्ध और सुंदर बनाती है।
दूध-दही से सींचकर, धैर्य से संभालकर यह तन एक सिंगार बन सकता है, पर समय के साथ यह पुरानी और कमजोर हो जाती है। हाथ में लकड़ी, छाया भी लुप्त—यह जीवन