होरी खेलनकू आई राधा प्यारी भजन
होरी खेलनकू आई राधा प्यारी भजन
होरी खेलनकू आई राधा प्यारी मीरा भजनहोरी खेलनकू आई राधा प्यारी हाथ लिये पिचकरी॥टेक॥
कितना बरसे कुंवर कन्हैया कितना बरस राधे प्यारी॥१॥
सात बरसके कुंवर कन्हैया बारा बरसकी राधे प्यारी॥२॥
अंगली पकड मेरो पोचो पकड्यो बैयां पकड झक झारी॥॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तुम जीते हम हारी॥४॥
मीराँबाई का यह पद उनके प्रियतम श्री कृष्ण के प्रति गहरी विरह की भावना को व्यक्त करता है। पद में मीराँबाई अपने प्रियतम के बिना अपने घर और आँगन को सुहावना नहीं पातीं। वे दीपों से सजाए गए घर, सूनी बिछावन, और व्याल (साँप) से भरी रातों का वर्णन करती हैं, जो उनके प्रियतम की अनुपस्थिति में व्यर्थ और भयावह प्रतीत होती हैं। नींद की कमी और विरह की पीड़ा उनके हृदय को व्याकुल करती है। वे अपने प्रियतम के दर्शन की प्रतीक्षा करती हैं, और उनके बिना जीवन को निरर्थक मानती हैं। पद के अंत में, मीराँबाई अपने प्रियतम के बिना होली के आनंद को अधूरा मानती हैं और उनके साथ होली खेलने की इच्छा व्यक्त करती हैं।
सुंदर भजन में प्रेम और अनुराग की गहन अभिव्यक्ति होती है। राधारानी की प्रतीक्षा, उनके भावों की निश्छलता, और कृष्ण से मिलने की इच्छा इस भजन के प्रत्येक शब्द में व्याप्त है। प्रेम का यह अनूठा स्वरूप केवल बाह्य आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की अनंत यात्रा है, जहाँ प्रियतम के बिना कोई रंग नहीं खिलता और कोई उत्सव पूर्ण नहीं होता।
होली का त्योहार उल्लास और आनंद का प्रतीक है, परंतु जब प्रिय दूर हो, तो हर रंग फीका लगता है। राधारानी अपने प्रियतम श्रीकृष्णजी के साथ होली खेलने की अदम्य इच्छा रखती हैं। उनके मन में एक सहज बालसुलभ प्रेम है, जहाँ कृष्ण के साथ हर क्षण आनंदमय हो जाता है। यह प्रेम केवल सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्यता से परिपूर्ण है, जहाँ आत्मा की पूर्णता केवल उनके प्रिय के साथ ही संभव है।
भजन में अनुराग की सरलता और गहराई अद्भुत रूप से उद्गारित होती है। प्रेम में हार और जीत का कोई स्थान नहीं होता, क्योंकि सच्चा प्रेम समर्पण में ही अपनी सार्थकता पाता है। मीराबाई का यह भाव यही दर्शाता है—जहाँ कृष्ण के साथ होली खेलना ही उनके प्रेम की पूर्णता है, और इस मिलन में ही उनके समर्पण का अंतिम स्वरूप प्रकट होता है।
होली का त्योहार उल्लास और आनंद का प्रतीक है, परंतु जब प्रिय दूर हो, तो हर रंग फीका लगता है। राधारानी अपने प्रियतम श्रीकृष्णजी के साथ होली खेलने की अदम्य इच्छा रखती हैं। उनके मन में एक सहज बालसुलभ प्रेम है, जहाँ कृष्ण के साथ हर क्षण आनंदमय हो जाता है। यह प्रेम केवल सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्यता से परिपूर्ण है, जहाँ आत्मा की पूर्णता केवल उनके प्रिय के साथ ही संभव है।
भजन में अनुराग की सरलता और गहराई अद्भुत रूप से उद्गारित होती है। प्रेम में हार और जीत का कोई स्थान नहीं होता, क्योंकि सच्चा प्रेम समर्पण में ही अपनी सार्थकता पाता है। मीराबाई का यह भाव यही दर्शाता है—जहाँ कृष्ण के साथ होली खेलना ही उनके प्रेम की पूर्णता है, और इस मिलन में ही उनके समर्पण का अंतिम स्वरूप प्रकट होता है।